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सांसों पर संकट

respiratory distress
ब्लिट्ज ब्यूरो

नई दिल्ली।इसमें कोई दो राय नहीं कि यह काम अकेले किसी सरकार द्वारा किया जाना संभव नहीं है। यह नागरिकों की भी जिम्मेदारी है क्योंकि असली बदलाव सामूहिक इच्छाशक्ति से ही आ पाएगा और तभी प्रदूषण की समस्या का समाधान हो सकेगा।

सर्दी का मौसम शुरू होने के साथ ही देश की राजधानी दिल्ली सहित राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की आबो-हवा अब बुरी तरह बिगड़ चुकी है। इस समय राजधानी व आसपास के क्षेत्र घने कोहरे की चादर में लिपटे नजर आ रहे हैं जो प्रदूषण से भरपूर भी हैं। जहरीली हवाओं के असर से लोग बेहाल हैं और उनमें स्वास्थ्य संबंधी अनेक समस्याएं पैदा हो रही हैं। वायु गुणवत्ता सूचकांक ज्यादातर क्षेत्रों में गंभीर श्रेणी में और कहीं-कहीं तो गंभीर श्रेणी के भी पार है। धूल और धुएं से बनी धुंध की दोहरी मार से दृश्यता कमजोर हो गई है जो घातक हादसों का कारण भी बन रही है। हाल ही में यमुना एक्सप्रेस-वे पर कोहरे के कारण 12 बसों और तीन कारों में टक्क र के कारण आग लग गई और 19 लोग जिंदा जल गए। इसमें कोई शक नहीं कि हालात अत्यंत गंभीर बने हुए हैं। वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग को दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सभी बाहरी शारीरिक खेल गतिविधियां बंद करने का फिर से निर्देश देना पड़ा है जबकि पिछले महीने ही शीर्ष न्यायालय ने ऐसे आयोजनों पर सवाल उठाया था और इसे रोकने के लिए कहा था, फिर भी अदालत के निर्देशों की अवहेलना की गई। जाहिर है दिल्ली और इसके आसपास के राज्यों की सरकारें प्रदूषण को गंभीरता से नहीं ले रही हैं। ऐसा बरसों से होता आ रहा है पर दीर्घकालिक समाधान किसी भी सरकार द्वारा नहीं निकाला गया।
दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अनुशंसित सीमा से तकरीबन तीस गुना अधिक होना यही बताता है कि दिल्ली-एनसीआर इन दिनों एक गंभीर पर्यावरणीय संकट से घिरा हुआ है। दिल्ली के एक्यूआई का आंकड़ा पिछले वर्षों में दिसंबर महीने का दूसरा सर्वाधिक है। इसके साथ लगे नोएडा, गाजियाबाद और ग्रेटर नोएडा में भी हालात अत्यंत गंभीर बने हुए हैं। धुंध की जहरीली चादर ने पूरे क्षेत्र को अपनी चपेट में लिया हुआ है जिससे लोगों की सांसों पर भी संकट खड़ा हो गया है। विशेष रूप से बच्चों, बुजुर्गों और सांस की बीमारियों से पीड़ित लोगों के लिए तो यह स्थिति और भी भयावह है। खुद केंद्र सरकार ने इस महीने के प्रारंभ में संसद में बताया था कि 2022 और 2024 के बीच दिल्ली के छह सरकारी अस्पतालों में सांस की गंभीर बीमारियों के दो लाख से अधिक केस आए। ताजा आपात स्थिति को देखते हुए वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम) ने 14 दिसंबर रविवार को ही ग्रेडेड रेस्पॉन्स एक्शन प्लान (ग्रेप) के तीसरे चरण को बढ़ाकर चौथे चरण पर पहुंचा दिया, जो इस सर्दी का सबसे सख्त कदम है और जो तब उठाया जाता है, जब एक्यूआई कुछ अधिक ही गंभीर स्थिति में पहुंच जाता है। प्रायः औद्योगिक उत्सर्जन, वाहनों से निकलने वाले धुएं, गिरते तापमान, हवा की कम गति और पड़ोसी राज्यों में मौसमी तौर पर फसल के अवशेषों को जलाने जैसे कई कारकों को इस समस्या की वजह माना जाता है जो सही भी है लेकिन इस बार इसकी मुख्य वजह उत्तर-पश्चिम भारत की ओर से आ रहे पश्चिमी विक्षोभ को कहा जा रहा है। समस्या यह है कि अब हर वर्ष ठंड आते ही दिल्ली गैस चैंबर बनने लगती है। ग्रेप जैसे अस्थायी उपाय जरूरी हैं पर दीर्घकालिक समाधान के लिए सार्वजनिक परिवहन को मजबूत करना, इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देना, उद्योगों में उत्सर्जन मानकों का सख्ती से लागू होना, पड़ोसी राज्यों के साथ समन्वय और हरित क्षेत्र बढ़ाना जरूरी है।
फिलहाल प्रदूषण को काबू में करने के लिए जो कदम उठाए गए हैं इसके सार्थक परिणाम तत्काल निकलते दिखाई नहीं दे रहे हैं। दिल्ली और आसपास का वायु गुणवत्ता सूचकांक लगातार बिगड़ता जा रहा है। राजधानी व आसपास लगातार प्रदूषण बने रहने की असल वजह क्या है, शायद यह कोई जानना नहीं चाहता और अगर कारणों की पहचान है तो राज्य सरकारें गंभीरता से कदम उठाने से संकोच क्यों कर रही हैं? एहतियाती कदम उठाए जाने के बावजूद प्रदूषण के स्तर को कम नहीं किया जा पा रहा है तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? प्रदूषण के कारणों की पहचान कर उन्हें दूर करने के लिए ठोस उपाय लागू करने के साथ-साथ लापरवाही के लिए अब संबंधित विभागों की भी जवाबदेही तय करने की जरूरत है। दरअसल, इस समस्या के गंभीर लक्षणों की जड़ का पता लगा कर उसके लिए सही मायने में दीर्घकालिक कदम उठाने होंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह काम अकेले किसी सरकार द्वारा किया जाना संभव नहीं है। यह नागरिकों की भी जिम्मेदारी है क्योंकि असली बदलाव सामूहिक इच्छाशक्ति से ही आ पाएगा और तभी प्रदूषण की समस्या का समाधान हो सकेगा।

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