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उच्च न्यायिक सेवा में पदोन्नत जजों के लिए आरक्षण से सुप्रीम कोर्ट का इनकार

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ब्लिट्ज ब्यूरो

नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने उच्चतर न्यायिक सेवा (एचजेएस) में पदोन्नत न्यायाधीशों के लिए आरक्षण देने से इनकार कर दिया और कहा कि देश में असमान प्रतिनिधित्व की कोई “साझा व्याधि” नहीं है जिसके लिए ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता हो।
शीर्ष अदालत ने कहा कि “कथित असंतोष” और “नाराजगी” के कारण किसी कैडर के सदस्यों का कृत्रिम वर्गीकरण नहीं किया जा सकता।
भारत के प्रधान न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा कि एचजेएस के भीतर चयन ग्रेड और सुपर टाइम स्केल में निर्धारण कैडर के भीतर योग्यता-सह-वरिष्ठता पर आधारित है और यह न्यायपालिका के निचले स्तर पर सेवा की अवधि या प्रदर्शन पर निर्भर नहीं हो सकता है। पीठ में न्यायमूर्ति सूर्य कांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची भी शामिल थे। पीठ ने कहा, “सांख्यिकीय आंकड़े भिन्न हैं और एचजेएस में नियमित पदोन्नत व्यक्तियों (आरपी) के असंतोष और नाराजगी को उचित ठहराने के लिए कोई ठोस आधार प्रदान नहीं करते हैं।” शीर्ष अदालत ने कहा कि सेवारत न्यायिक अधिकारियों के पास जिला न्यायाधीश के रूप में उन्नति के पर्याप्त अवसर हैं, जिससे उन्हें जिला न्यायाधीश के रूप में सीधी भर्ती के लिए दावेदारी की अनुमति मिलती है।
पीठ ने कहा, “एचजेएस के अंतर्गत चयन ग्रेड और सुपर टाइम स्केल में नियुक्ति, संवर्ग के भीतर योग्यता-सह-वरिष्ठता पर आधारित है और न्यायपालिका के निचले स्तरों पर सेवाकाल या प्रदर्शन पर निर्भर नहीं हो सकती; आरपी और सीमित विभागीय प्रतियोगी परीक्षाएं (एलडीसीई) के एचजेएस में आने के बाद, यह अपना महत्व खो देता है। इस पर निर्भरता न्याय के कुशल प्रशासन के उद्देश्य की पूर्ति नहीं करती और प्रतिकूल परिणाम देती है।”
उसने कहा, “ यह दीवानी न्यायाधीश के रूप में कार्यकाल की अवधि और प्रदर्शन भी जिला न्यायाधीश के सामान्य संवर्ग में पदाधिकारियों को वर्गीकृत करने के लिए एक स्पष्ट अंतर नहीं बनाता है और शैक्षिक योग्यता के आधार पर वर्गीकरण एक अलग आधार पर है।”

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