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करियर व फैमिली के बीच नहीं बन पा रहा संतुलन, कठिन हुई मातृत्व व दांपत्य की डगर

There is no balance between career and family, the path of motherhood and marriage has become difficult
ब्लिट्ज ब्यूरो

नई दिल्ली। मातृत्व के साथ-साथ अपनी पेशेवर भूमिका के बीच सामंजस्य स्थापित करना महिलाओं के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण हो गया है। तलवार की धार पर चलना जैसा कठिन। थोड़ा इधर-उधर होते ही मानसिक तनाव, कुंठा, अवसाद के दलदल में धंसने का खतरा। यह इस दौर का सच है कि करियर और बच्चों के पालन-पोषण के बीच बैलेंस बनाने के चक्क र में 50 प्रतिशत से अधिक कामकाजी महिलाएं तनाव, कुंठा और अवसाद की चपेट मेें आ रही हैं।
चिंता की बात यह भी है कि इन महिलाओं में से बमुश्किल 15-20 प्रतिशत ही मनोवैज्ञानिक परामर्श ले पा रही हैं। समय पर सही काउंसलिंग नहीं मिल पाने के कारण ऐसी महिलाओं की मानसिक सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव साफ दिखाई देने लगता है।
संतुलन की कवायद में गहरे तक तनाव में धंसी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, उपक्रम व अन्य इकाइयों में काम करने वाली महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर अनुसंधान करने वाली तथा ‘स्वस्थ नारी-खुशहाल समाज’ के मिशन को ही जीवन लक्ष्य मानने वाली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की जानी-मानी मनोवैज्ञानिक दीप माला का कहना है कि हालात लगातार बदतर हो रहे हैं। विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वालीं माताएं तनाव, पालन-पोषण के अपराधबोध, वैवाहिक तनाव और कार्य-जीवन असंतुलन की समस्या को लेकर परामर्श लेने उनके पास पहुंच रही हैं। मातृत्व-दांपत्य से जुड़ी समस्याओं से जूझ रहीं महिलाओं को भावनात्मक, मानसिक और करियर से संबंधित सहायता की जरूरत होती है।
दीप माला का कहना है कि ऐसी महिलाओं के लिए मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग बहुत कारगर हो सकती है। काउंसलिंग एक सुरक्षित और सहायक वातावरण प्रदान करती है जहां महिलाएं अपनी चिंताओं और चुनौतियों पर खुलकर बात कर सकती हैं और समाधान ढूंढ़ सकती हैं।
मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता दीप माला ने बताया कि तीन स्तरों पर काउंसलिंग के माध्यम से कामकाजी महिलाओं को अवसाद, कुंठा से बाहर निकालने का प्रयास किया जाता है। पहले चरण में व्यक्तिगत काउंसलिंग की जाती है। दूसरे चरण में समूह काउंसलिंग के माध्यम से महिलाओं को एक-दूसरे से सीखने और समर्थन प्राप्त करने में मदद करती है। तीसरे चरण में परिवार के सदस्यों के साथ काउंसलिंग की जाती है, जो महिलाओं को परिवार के सदस्यों के साथ अपने संबंधों को बेहतर बनाने में मदद करती है।
काउंसलिंग में आने वाली मुख्य अड़चन
nदेश में एक लाख की आबादी पर केवल 0.75 मनोचिकित्सक उपलब्ध हैं जबकि डब्ल्यूएचओ ने एक लाख की आबादी पर तीन मनोचिकित्सकों का मानक तय किया है।
भारतीय समाज में मनोचिकित्सक से परामर्श लेने का चलन ही नहीं है।
मनोवैज्ञानिक से परामर्श लेने पर संबंधित महिला पर टीका-टिप्पणी शुरू हो जाती है।
मेट्रो सिटी में जागरूकता कुछ बढ़ी है, कुछ खुलापन आया है, लेकिन मध्यम दर्जे के शहरों में कामकाजी महिला को मनोचिकित्सक के पास छिप कर जाना पड़ता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत विकट है। न वहां जागरूकता है, न ही मनोचिकित्सक।

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