दीपक द्विवेदी
ऐसे में, जब कि सारी दुनिया में बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों को महामारी से भयानक समझा जा रहा है एवं सरकारों को गंभीरता से काम करने की आवश्यकता जताई जा रही है; सम्मानित अदालतों से बच्चों के अधिकारों की रक्षा की विशेष रूप से अपेक्षा की जाती है।
महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े मामलों में अक्सर कोई निर्णय देते समय प्राय: देश की अदालतें संवेदनशील तरीके से विचार करती हैं। उनसे ऐसी अपेक्षा भी की जाती है कि वे फैसला देते वक्त घटना, तथ्यों और साक्ष्यों पर गंभीरतापूर्वक विचार करेंगी। हालांकि कभी-कभी ऐसे प्रकरण भी देखने को मिल जाते हैं जिनमें अनेक दफा निचले न्यायालय ऐसे मामलों में पूर्वाग्रहपूर्ण निर्णय सुना देते हैं। ऐसा ही एक मामला अभी हाल ही में एक नाबालिग के साथ यौन दुर्व्यवहार के संबंध में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का सामने आया है जिसमें स्वयं सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा। उच्च न्यायालय ने इस संबंध में फैसला दिया कि संबंधित लड़की के साथ जो किया गया, उसे दुष्कर्म नहीं कहा जा सकता। यह उचित ही हुआ कि स्वतः संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले पर रोक लगा दी।
सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस निर्णय पर खेद प्रकट किया और इसमें संवेदनशीलता की कमी का विशेष रूप से उल्लेख भी किया। शीर्ष कोर्ट ने न्यायाधीश की टिप्पणियों को असंवेदनशील एवं अमानवीय दृष्टिकोण वाला बताया क्योंकि यह बात किसी को समझ नहीं आ पा रही थी कि जब पॉक्सो एक्ट में ही स्पष्ट रूप से किसी बच्चे के साथ गलत हरकतों को आपराधिक कृत्य माना गया है, तब कैसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के संबंधित न्यायाधीश को न्यायिक विवेचना करते समय यह गंभीर दोष नजर नहीं आया। बात अगर महिलाओं के यौन उत्पीड़न से संबंधित कानूनों की करें तो उनमें तो उन्हें घूरने, गलत संकेत करने, उनका पीछा करने जैसी हरकतों को भी आपराधिक कृत्य वाला माना गया है। फिर उस नाबालिग लड़की के प्रकरण में हर पहलू पर विचार क्यों नहीं किया गया; यह विचारणीय प्रश्न है। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पूरी तरह असंवेदनशील व अमानवीय ठहराते हुए कहा कि यह निर्णय अचानक नहीं सुनाया गया है बल्कि चार माह तक सुरक्षित रखने के बाद फैसला आया है। इसका यही अर्थ निकलता है कि जज ने उचित विचार-विमर्श करके और दिमाग लगाकर यह फैसला दिया है।
शीर्ष अदालत की पीठ ने यह भी कहा कि ऐसे कठोर शब्दों के प्रयोग पर हमें खेद है। शीर्ष अदालत ने इस पर केंद्र व उप्र सरकार को भी नोटिस भेजा। हाईकोर्ट का यह फैसला उप्र के कासगंज के मामले में दिया गया था जिसमें 2021 में 14 साल की किशोरी की मां ने लड़की से अश्लील हरकतें करने का आरोप लगाया था। मामले में पॉस्को के अतिरिक्त दुष्कर्म व अपराध करने के प्रयास वाली धाराएं भी लगाई गई थीं पर जब हाईकोर्ट की टिप्पणी आई तो नेटीजनों ने गहरी निराशा व्यक्त की थी तथा यह फैसला सोशल मीडिया में वायरल भी हुआ था। 2021 में सबसे बड़ी अदालत ने नागपुर बेंच के बॉम्बे हाईकोर्ट के ऐसे ही एक फैसले को पलटते हुए कहा था, बच्चे के निजी अंगों को यौन इरादे से छूने को पॉस्को अधिनियम की धारा के अंतर्गत यौन हिंसा माना जाएगा। नाबालिगों के साथ होने वाले यौन शोषण को लेकर पॉस्को सरीखे कानून बनने के बाद भी इस तरह के असंवेदनशील व स्त्री-विरोधी फैसलों का आना, बेहद शोचनीय एवं विचारणीय है। यहां तक कि सॉलिसिटर जरनल ने भी कहा कि इस फैसले पर मैं गंभीर आपत्ति जताता हूं। ऐसे में, जब कि सारी दुनिया में बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों को महामारी से भयानक समझा जा रहा है एवं सरकारों को गंभीरता से काम करने की आवश्यकता जताई जा रही है; ऐसे में सम्मानित अदालतों से बच्चों के अधिकारों की रक्षा की विशेष रूप से अपेक्षा की जाती है। वजह साफ है क्योंकि असंवेदनशील निर्णयों की भाषा व शब्दों के चयन का प्रभाव दूरगामी होता है।