दीपक द्विवेदी
जहां भी अवैध लोग पाए जाएं उन्हें मतदाता सूची से तो बाहर किया ही जाए; यदि वे देश के नागरिक भी नहीं हैं तो देश से भी निकाला जाए क्योंकि वे देश के संसाधनों पर एक बहुत बड़ा बोझ हैं एवं असली नागरिकों के हक का हनन भी कर रहे हैं।
बिहार में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण को लेकर विपक्षी दलों द्वारा की गईं आपत्तियां सिर्फ व्यर्थ के शोर-शराबे के अलावा और कुछ नहीं थीं। यह बात उस समय सही साबित भी हो गई जब सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में चल रही मतदाता सूची की पुनरीक्षण प्रक्रिया को रोकने से इन्कार कर दिया और कहा कि चुनाव आयोग के पास ऐसा करने का संवैधानिक अधिकार है। शीर्ष अदालत की यह टिप्पणी बिहार मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण पर 10 याचिकाओं की सुनवाई के बाद आई है जिनमें इस प्रक्रिया की आलोचना मनमाना और भेदभावपूर्ण बताते हुए की गई है क्योंकि इसमें केवल 2003 के बाद पंजीकृत मतदाताओं को ही पुनः सत्यापन के लिए बाध्य किया गया है और ऐसा करने के लिए उन्हें आधार कार्ड, मतदाता फोटो पहचान पत्र जैसे सरकारी पहचान पत्रों का उपयोग नहीं करना होगा जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने आधार कार्ड, राशन कार्ड और वोटर आईडी कार्ड को मतदाताओं की पहचान के पुनः सत्यापन के लिए वैध दस्तावेज मानने को कहा है। अदालत का कहना है कि इन तीनों को शामिल करना न्याय के हित में होगा।
वैसे तो आजादी के 78 सालों के दौरान मतदाता सूचियों का संशोधन कई बार हो चुका है। उन पर आपत्तियां भी उठती रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 1995 में यह फैसला दिया था कि आयोग किसी की भी नागरिकता तय नहीं कर सकता। व्यक्ति को खुद साबित करना है कि वह भारत का नागरिक है। चुनाव आयोग को कुछ दस्तावेजों के आधार पर तय करना होता है कि कोई व्यक्ति पात्र मतदाता है या नहीं। दरअसल चुनाव आयोग की इस पूरी प्रक्रिया को लेकर हंगामा इसलिए भी मचा क्योंकि उसने आधार कार्ड को इस पूरी प्रक्रिया के दौरान बाहर कर दिया जबकि व्यक्ति की पहचान का सबसे पुख्ता दस्तावेज इसे ही माना जाता है और बैंकों से लेकर तमाम सरकारी योजनाओं का लाभ भी इसके माध्यम से देश के नागरिक उठा रहे हैं। अगर बांग्लादेशी या रोहिंग्या घुसपैठिये फर्जी आधार कार्ड बनवा रहे हैं तो इसके लिए जिम्मेदार है दोषपूर्ण व्यवस्था। ऐसी रिपोर्ट सामने आई हैं कि बिहार के सीमावर्ती क्षेत्रों में आबादी से ज्यादा आधार कार्ड बने हुए हैं। ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग का भी दायित्व बन जाता है कि ऐसे लोगों के नाम मतदाता सूचियों से काटे जाएं। मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण में अब अधिक दिन नहीं बचे हैं। 80 प्रतिशत के करीब गणना प्रपत्र भरे जा चुके हैं। ऐसे में चुनाव आयोग को गहन सत्यापन बड़ी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ करना होगा नहीं तो विपक्षी दल चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करने लगेंगे क्योंकि विपक्षी पार्टियां तो अभी से ही यह आरोप लगा रही हैं कि इसके जरिए लाखों वोटरों के नाम मतदाता सूचियों से कट जाएंगे।
अब बिहार में इसी साल के आखिर तक विधानसभा चुनाव होने हैं। राज्य में स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (एसआईआर) को लेकर आपत्तियां इसके किए जाने के समय को लेकर ज्यादा हैं। जिनके पास जरूरी डॉक्यूमेंट नहीं हैं, वे इतनी जल्दी उनका इंतजाम नहीं कर पाएंगे। हालांकि आयोग ने भरोसा दिया है कि किसी को भी अपनी बात रखने का पूरा अवसर दिए बिना मतदाता सूची से नाम काटा नहीं जाएगा। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि यह मुद्दा लोकतंत्र की जड़ों से जुड़ा है और लोकतंत्र में सबसे अहम होती है जनता। एसआईआर दरअसल जुड़ा है वोटर लिस्ट से जिससे यह संदेश लोगों के बीच जा रहा है कि इससे नागरिकता तय होगी। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी राहत देती है कि निर्वाचन आयोग का किसी व्यक्ति की नागरिकता से कोई लेना-देना नहीं है। एक बात तो स्पष्ट है कि देश की मतदाता सूची में फर्जी दस्तावेज वाले अथवा विदेशी नागरिक नहीं होने चाहिए। जैसे कि समाचार मिले हैं कि एसआईआर पूरे देश में होगा तो यह एक बेहतर कदम है। जहां भी अवैध लोग पाए जाएं उन्हें मतदाता सूची से तो बाहर किया ही जाए; यदि वे देश के नागरिक भी नहीं हैं तो देश से भी निकाला जाए क्योंकि वे देश के संसाधनों पर एक बहुत बड़ा बोझ हैं एवं असली नागरिकों के हक का हनन भी कर रहे हैं। साथ ही उन व्यक्तियों पर सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए जो साजिश कर के इन अवैध लोगों की घुसपैठ करा रहे हैं और देश की डेमोग्राफी बिगाड़ रहे हैं। इसके साथ ही चुनाव आयोग को भी हमें और सशक्त बनाना होगा ताकि वह स्वयं ऐसे कुत्सित प्रयासों पर लगाम लगा कर अपराधियों पर तत्काल एक्शन ले सके।































