ब्लिट्ज ब्यूरो
क्या विपक्ष यह चाहता है कि राजनीति में शुचिता और नैतिकता की स्थापना के लिए कुछ भी न किया जाए? अतः यह जरूरी है कि सभी दल सही सोच के साथ राजनीति में शुचिता और नैतिकता लाने के लिए समग्र प्रयास करें। यही देशहित में भी है।
प्र धानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार की ओर से संसद के मानसून सत्र की समाप्ति के एक दिन पूर्व गृहमंत्री अमित शाह ने जो 130वें संविधान संशोधन विधेयक पेश किए उनको लेकर विपक्ष की तरफ से अभूतपू्र्व हंगामा सदन में देखने को मिला। इस हंगामे के दौरान माननीयों द्वारा जिस आचरण का प्रदर्शन किया गया उसे किसी भी दृष्टि से शोभनीय नहीं का जा सकता। विपक्षी सांसदों ने उन विधेयकों को फाड़ कर उनकी बॉल बना कर गृहमंत्री अमित शाह पर फेंका। असहमति होने पर विरोध प्रकट करना लोकतंत्र में विपक्ष का अधिकार है पर जो दृष्टांत पेश किया गया, वह सही परंपरा की नींव नहीं रखता। दरअसल गंभीर आपराधिक आरोपों में गिरफ्तार अथवा हिरासत में लिए जाने पर प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रियों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री या मंत्रियों को गिरफ्तारी के 30 दिन बाद पद से हटाने के प्रावधान वाले विधेयकों पर लोकसभा पर विपक्ष ने आवश्यकता से अधिक शोरशराबा और हंगामा किया जो सामान्य विवेक से परे था। यह अच्छा ही हुआ कि गृहमंत्री अमित शाह ने अपनी ओर से इन विधेयकों को संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को भेजने का प्रस्ताव रखा जिसे लोकसभा अध्यक्ष ने स्वीकार भी कर लिया।
पहले यह खबर थी कि विपक्ष का आईएनडीआईए (इंडिया) गठबंधन का कोई दल जेपीसी में शामिल नहीं होगा पर अब तीन विधेयक ने विपक्षी खेमे में दरार पैदा कर दी है। इस बिल को लेकर जेपीसी में शामिल होने पर विपक्षी धड़ा पूरी तरह से दो भागों में बंटा नजर आ रहा है। विपक्ष ने संसद में इन बिलों का संयुक्त रूप से विरोध किया था। समझा जाता है कि कांग्रेस नेतृत्व इस समिति में शामिल होने के पक्ष में है क्योंकि उसे लगता है कि जेपीसी की जांच के दौरान पार्टी और व्यापक विपक्ष की आलोचना दर्ज कराना जरूरी है। दूसरी तरफ, तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने इसे ‘तमाशा’ बताकर समिति से बाहर रहने की घोषणा की है। इन दोनों दलों ने अपने गुट के भीतर अलग विचार को सार्वजनिक करने का विकल्प चुना है। अब इस लाइन पर शिवसेना भी विचार कर रही है। कभी गुट की सहयोगी रही आम आदमी पार्टी ने भी जेपीसी से दूर रहने का फैसला किया है। वहीं, वामपंथी दल जेपीसी में शामिल होने के पक्ष में हैं। कांग्रेस नेता डीएमके, एनसीपी-सपा, आरजेडी और जेएमएम जैसे अन्य सहयोगियों से बात करके उन्हें भी इसमें शामिल करने की कोशिश कर रहे हैं।
कम से कम अब तो विपक्ष को विरोध के स्वर थाम कर इस गंभीर विषय पर समुचित विचार-विमर्श करना चाहिए। आखिर ऐसी कोई व्यवस्था क्यों नहीं होनी चाहिए कि उच्च पदों पर बैठे लोगों की गंभीर मामलों में गिरफ्तारी अथवा उन्हें हिरासत में लिए जाने पर उनके लिए पद छोड़ना अनिवार्य बन जाए? आखिर ऐसी किसी व्यवस्था में समस्या क्या है?
क्या इसकी अनदेखी कर दी जाए कि महत्वपूर्ण पदों पर बैठे व्यक्तियों पर गंभीर आरोप लगते हैं और कई बार प्रथम दृष्ट्या वे सही भी दिखते हैं लेकिन कोई इस्तीफा देने की पहल नहीं करता। एक समय ऐसा ही होता था। इस संदर्भ में गृहमंत्री अमित शाह ने स्वयं अपना उदाहरण दिया कि जब उन्हें गुजरात के मंत्री रहते गिरफ्तार किया गया था तो उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था। क्या ऐसा अन्य नेताओं को नहीं करना चाहिए? दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में अरविंद केजरीवाल ने जेल में रहते हुए भी इस्तीफा नहीं दिया था। जमानत मिलने के बाद वे तब इस्तीफा देने को बाध्य हुए, जब बतौर मुख्यमंत्री उनके लिए कार्य करना कठिन हो गया। क्या विपक्ष यह चाहता है कि राजनीति में शुचिता और नैतिकता की स्थापना के लिए कुछ भी न किया जाए? अतः यह जरूरी है कि सभी दल सही सोच के साथ राजनीति में शुचिता और नैतिकता लाने के लिए समग्र प्रयास करें। यही देशिहत में भी है।