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संतुलित निर्णय

by Blitz India Media
November 30, 2025
in Hindi Edition
Supreme Court
ब्लिट्ज ब्यूरो

न्यायपालिका का यह दृष्टिकोण निस्संदेह संविधान द्वारा तय सीमाओं का सम्मान करने वाला और स्थिरता व संतुलन बनाए रखने वाला है। इसमें कोई दोराय नहीं।

अप्रैल, 2025 में तमिलनाडु के मामले में विचार करने वाली सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ ने यह फैसला दिया था कि राज्यपालों को एक तय समय सीमा में विधेयकों पर निर्णय लेना होगा। उसने राज्यपालों के साथ-साथ राष्ट्रपति को भी समय सीमा में बांध दिया था और तमिलनाडु के लंबित विधेयकों को स्वीकृत भी करार दे दिया था। इसके बाद यह माना गया कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अपनी न्यायिक सीमा का अतिक्रमण करने और संवैधानिक व्यवस्था की अनदेखी करने वाला फैसला था। जाहिर है कि इस फैसले से संघीय ढांचे और कार्यपालिका की स्वतंत्रता से जुड़े कई सवाल उठे। तब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत 14 प्रश्नों वाला संदर्भ भेजकर इन पर सर्वोच्च न्यायालय से राय मांगी थी। आर्टिकल 143 भारत के राष्ट्रपति को जरूरी कानूनी या तथ्य वाले सवालों पर सुप्रीम कोर्ट की एडवाइजरी राय लेने का अधिकार देता है। मूल सवाल यह था कि क्या अदालत ने राज्यपालों के लिए निर्णय लेने की समय-सीमा निर्धारित कर शक्तियों के पृथक्क रण के सिद्धांत का उल्लंघन किया है, जो संविधान के मूल ढांचे का एक अहम हिस्सा है। यदि न्यायपालिका राज्यपालों व राष्ट्रपति के लिए विधेयकों को रोके जाने की समय-सीमा निर्धारित करती है तो इससे न्यायिक पुनरीक्षण और न्यायिक विधान के बीच की रेखा मिटने लगती है। उनकी ओर से पूछे गए सवालों का जवाब देने के क्रम में संविधान पीठ ने यह पाया कि दो सदस्यीय पीठ का यह कहना असंवैधानिक था कि यदि विधेयकों को तय सीमा में मंजूरी न मिले तो उन्हें स्वतः स्वीकृत माना जाए। निःसंदेह संविधान पीठ के इस फैसले पर भी बहस अवश्य होगी लेकिन इसी के साथ इस पर भी ध्यान दिया जाए कि सुप्रीम कोर्ट से ऐसे फैसले आना भी शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता जो संविधान की भावना के खिलाफ जाते हों और जिस पर राष्ट्रपति को प्रश्न पूछने पड़ जाएं।
राष्ट्रपति के संदर्भित सवालों पर मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर की संविधान पीठ ने 10 दिनों तक दलीलें सुनीं और 11 सितंबर को फैसला सुरक्षित रख लिया था। अब पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के उस संदर्भ पर अपना फैसला सुना दिया है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने यह कहा कि राज्यपाल या तो विधेयकों को टिप्पणियों के साथ सदन को वापस भेजें या फिर उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख लें। इसलिए संभावना इसी बात की है कि आगे भी विधेयक लंबित रहने के मामले आ सकते हैं। हालांकि विधेयकों के लंबित रहने की अवस्था में सुप्रीम कोर्ट ने सीमित दखल देने की बात अवश्य कही है पर वह राज्यपालों को फैसला लेने को बाध्य नहीं कर सकता। इस वजह से ऐसी समस्याएं फिर देखने को मिल सकती हैं, इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता जैसी कि पिछले दिनों तमिलनाडु में देखने को मिलीं। निश्चित ही इस समस्या का समाधान निकाला जाना चाहिए लेकिन यह समाधान स्वयं विधायिका और कार्यपालिका की ओर से ही निकलना चाहिए। बेहतर तो यही है कि इस पर राजनीतिक दल आपस में कोई आम सहमति कायम करें ताकि विधायिका-कार्यपालिका के वे मामले न्यायपालिका तक न पहुंचें जिन पर उसे निर्णय लेने का अधिकार नहीं। दरअसल कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका, तीनों को ही अपनी-अपनी संवैधानिक सीमाओं का ध्यान रखना चाहिए। जब ऐसा नहीं होता तभी समस्याएं सामने आती हैं। यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट को संविधान की व्याख्या करने का अधिकार है पर इस आधार पर संविधान की अनदेखी भी नहीं होनी चाहिए।
तमिलनाडु मामले में यह कहा जाना ठीक नहीं था कि यदि राज्यपाल अपना काम समय पर नहीं करते तो हम चुपचाप नहीं बैठ सकते क्योंकि इस सवाल का कोई जवाब नहीं कि यदि न्यायपालिका समय पर फैसले न ले तो क्या किया जा सकता है? खैर यहां प्रश्न न्यायपालिका का नहीं है। अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने विधेयकों को मंजूरी देने के मामले में राज्यपालों को समय सीमा में बांधने की आवश्यकता नहीं समझी और एक ऐसा संवैधानिक संकट टालने में सफल रहा जो बड़े विवाद का कारण बन सकता था। इस पर बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने यह निर्णय दिया कि न्यायालय, कार्यपालिका की शक्तियों का अतिक्रमण नहीं कर सकता। इसका अर्थ यही है कि पीठ मानती है कि दो सदस्यीय पीठ ने अपनी सीमा से बाहर जाकर निर्णय दिया। वैसे कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं किए जाने की बात कह कर अदालत ने भी कहीं न कहीं अपने दरवाजे खुले रख कर राज्यपालों को अपनी स्वीकृति को अनिश्चित काल तक टालने से हतोत्साहित भी किया है। न्यायपालिका का यह दृष्टिकोण निस्संदेह संविधान द्वारा तय सीमाओं का सम्मान करने वाला और स्थिरता व संतुलन बनाए रखने वाला है। इसमें कोई दोराय नहीं।

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