दीपक द्विवेदी
दिल्ली में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। यहां 5 फरवरी को वोट डाले जाएंगे और 8 फरवरी को नतीजों की घोषणा हो जाएगी। दिल्ली में हर बार लोकसभा चुनाव के करीब नौ महीने बाद विधानसभा चुनाव होते हैं । यह बात आश्चर्यचकित करने वाली है कि इतने कम अंतराल में भी वोटिंग ट्रेंड बदल जाता है। अगर यहां बीते तीन विधानसभा और तीन लोकसभा चुनाव के रिजल्ट पर गौर करें तो औसतन 18 प्रतिशत स्विंग वोट ही तय करते हैं कि दिल्ली की सत्ता का ताज किस पार्टी के सिर पर सजेगा। 2014 में भाजपा लोकसभा की सभी 7 सीटें जीती और कुल 70 में से 60 विस सीटों पर आगे रही लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में आप 67 और भाजपा ने 3 सीट ही जीतीं थीं। 2019 में भाजपा फिर सभी लोकसभा सीटें जीती और 65 विस सीटों में आगे रही लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव में आप 62 सीटें जीत गई। 2024 में लोकसभा चुनाव में भाजपा फिर सभी सीटें जीती और 52 विस सीटों पर आगे रही।
वैसे ठंड से ठिठुरती राजधानी दिल्ली में चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के पहले ही सियासी पारा खूब ऊपर चढ़ चुका था। उद्घाटनों-शिलान्यासों, लोक-लुभावन वायदों की झड़ी, नेताओं के बेलगाम बोल और कार्यकर्ताओं की आक्रामकता, सभी इस बात की गवाही दे रहे थे। बस फर्क अब यही रहेगा कि एक ही चरण में सभी 70 विधानसभा क्षेत्रों में मतदान होने की वजह से राजधानी में राजनीतिक तापमान का पारा अब और तेजी से बढ़ना लाजिमी है। इसके अलावा चुनाव की घोषणा के साथ ही राजधानी में आदर्श आचार संहिता भी लागू हो गई है। आयोग ने बाकायदा केंद्र सरकार से भी कहा है कि अगले आम बजट में वह दिल्ली केंद्रित किसी योजना की घोषणा नहीं कर सकती।
निस्संदेह बीते कुछ चुनावों में आदर्श आचार संहिता का जिस पैमाने पर उल्लंघन देखा गया और चुनाव आयोग की भूमिका उन मामलों में जिस कदर उदासीन दिखी; उससे इस व्यवस्था को ही कठघरे में खड़ा किया जाने लगा था। मगर हम इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि इस संहिता की बदौलत ही चुनाव आयोग मतदान को प्रभावित करने वाले कई अनुचित तरीकों पर शिकंजा कसने में भी कामयाब रहा है। हाल ही में महाराष्ट्र, झारखंड के विधानसभा चुनावों के समय आयोग ने लगभग 1,100 करोड़ रुपये की शराब, ड्रग्स, आभूषण और नकदी आदि बरामद की थी।
दिल्ली विधानसभा का चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण माना जाता है कि इसका प्रभाव पूरे राष्ट्र पर होता है। इसमें कोई दोराय नहीं कि दिल्ली को एक ‘मॉडल स्टेट’ होना चाहिए था पर न तो यह विकास का मॉडल बन सका और न ही सुचारू संघीय शासन प्रणाली का। बजबजाती यमुना, दम घोंट देने वाला प्रदूषण या फिर केंद्र-राज्य टकराव का मुद्दा ही अब इसकी पहचान सी बन गए हैं। इसके लिए किसी एक दल को दोषी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वर्तमान विधानसभा चुनाव में यहां की सत्ता के मुख्य दावेदार दल- भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), कांग्रेस या आम आदमी पार्टी (आप); तीनों ने ही यहां पर शासन किया है।
भाजपा, कांग्रेस और आप, तीनों के लिए ही यह दिल्ली का दंगल यानी विधानसभा चुनाव ‘नाक का सवाल’ बन चुका है। गत तीन लोकसभा चुनावों से केंद्र में लगातार सरकार बनाने और दिल्ली की सभी संसदीय सीटों पर कब्जा करने वाली भाजपा पिछले 26 वर्षों से दिल्ली का दंगल जीतने को बेताब है। यही नहीं, दिल्ली नगर निगम में दशकों से कायम उसकी सत्ता भी छिन चुकी है। ऐसी स्थिति में इस दर्द को वह इस विधानसभा चुनाव में दूर करना चाहती है। विधानसभा सीटों के लिहाज से भले ही कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं पर उसके आगे सबसे बड़ा सवाल यह है कि लोकसभा चुनाव में आप से गठजोड़ करके उसने राजधानी में वोट प्रतिशत या मतदाता वर्ग में जो अपनी पैठ बनाई है; क्या उसे बरकरार रख पाएगी? आम आदमी पार्टी के लिए भी यह चुनाव अस्तित्व की लड़ाई से कम नहीं है क्योंकि उसके पास गैर-भ्रष्ट सरकार का जो तमगा था वह अब तमाम तथाकथित घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह दागदार और तार-तार हो चुका है। यही नहीं; आप के मुखिया समेत उसके कई नेता जेल में रह कर आए हैं और जमानत पर बाहर हैं। इसलिए आप के लिए भी राह बहुत कठिन हो चुकी है। लोकसभा चुनाव में उसका साथ दे रही कांग्रेस भी विधानसभा चुनाव में आप के खिलाफ खड़ी है। कुल मिलाकर इस बार दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे बेहद रोचक होने के साथ–साथ रोमांचक भी होंगे। अब यह चुनाव परिणाम ही बताएंगे कि दिल्ली के मतदाता चुनाव के इस दंगल में बंट रहीं मुफ्त की रेवड़ियों के साथ हैं या विकास की बात करने वालों के साथ।































