ब्लिट्ज ब्यूरो
नई दिल्ली। समान न्याय और निरर्थक औपनिवेशिक प्रथाओं से छुटकारा पाना देश की न्यायपालिका के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत होने चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को स्वतंत्र भारत की अंतरात्मा का संरक्षक बताते हुए यह बात राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कही। उन्होंने कहा कि इसने एक न्यायशास्त्र विकसित किया है जो भारतीय लोकाचार और वास्तविकताओं में निहित है। सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के 75वें जयंती वर्ष को लेकर राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए मुर्मू ने कहा कि संविधान सभा के सदस्यों ने तब के बीते दशकों की घटनाओं के बारे में सोचा होगा, जैसे हम अपने न्यायिक इतिहास के पिछले 75 वर्षों को देख रहे हैं। इल्बर्ट बिल और रोलेट एक्ट आदि से उनकी संवेदनशीलता को चोट पहुंची होगी।
तीन पुस्तकों का विमोचन
राष्ट्रपति ने तीन पुस्तकों, ‘रिफ्लेक्शंस आन 75 इयर्स आफ द सुप्रीम कोर्ट आफ इंडिया’, ‘प्रिजंस इन इंडियाः मैपिंग प्रिजन मैनुअल्स एंड मेजर्स फार रिफार्मेशन एंड डिकंजेशन’ और ‘लीगल एड थ्रू ला स्कूल्सः ए रिपोर्ट आन वर्किंग आफ लीगल एड सेल्स इन इंडिया’ का विमोचन भी किया।
जेलों में नहीं होगा जाति आधारित भेदभाव
इस दौरान सीजेआई ने कहा कि जेल रिपोर्ट में नशामुक्ति की पहल के अलावा महिला कैदियों के लिए मासिक धर्म समानता और प्रजनन अधिकार, जैसे पहलुओं के बारे में बताया गया है, जिन पर शायद ही कभी संस्थागत ध्यान दिया गया हो।
जाति पर शीर्ष अदालत के हालिया फैसले पर उन्होंने कहा, कैदियों की जाति अक्सर उन्हें दिए जाने वाले काम का निर्धारण करती थी लेकिन अब जेलों में जाति आधारित भेदभाव की अनुमति नहीं दी जाएगी।
भारत के नए सीजेआई न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने खुली जेलों की अवधारणा और इसके फायदों के बारे में भी बात की और कहा कि अपराध दोहराने में कमी आती है और मानवीय गरिमा बहाल होती है।