ब्लिट्ज ब्यूरो
अगर चुनावी हेरफेर इतना ही आसान है तो पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर और झारखंड के चुनावों में विपक्षी दल कैसे जीत गए
किसी भी देश में लोकतंत्र की मजबूती और विश्वसनीयता इस बात पर टिकी है कि उसमें सरकार के चयन की प्रक्रिया कितनी साफ, स्वतंत्र और पारदर्शी है। इस काम के लिए चुनाव आयोजित कराने वाली संस्था (भारत में चुनाव आयोग) को यह सुनिश्चित करना होता है कि कोई भी वैध नागरिक मताधिकार से वंचित न रहे और मतदान की पूरी प्रक्रिया पारदर्शी तथा चुनाव में हिस्सेदारी करने वाले सभी दलों के लिए भरोसेमंद हो और नतीजों को लेकर सभी पक्ष संतुष्ट नजर आएं। इसे देश के संदर्भ में शायद दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि प्रायः प्रत्येक चुनाव के बाद जिस तरह मतदान की प्रक्रिया में गड़बड़ी और इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) के समूचे तंत्र के साथ नतीजों तक को लेकर जैसे विवाद उठाए जाते रहे हैं, उससे कई तरह की आशंकाएं खड़ी हुई हैं। अभी हाल ही में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से कई जगहों पर हुए मतदान और उसमें हुई गड़बड़ियों के संदर्भ में चुनाव आयोग की कार्यशैली को लेकर जो प्रश्न खड़े किए हैं, वे अपनी प्रकृति में गंभीर हो सकते हैं और जांच का विषय भी अवश्य हैं पर उनको लेकर जिस तरह से विपक्ष ने सड़क से संसद तक विरोध का जो रवैया अपना रखा है, उसे किसी भी नजरिये से औचित्यपूर्ण करार नहीं दिया जा सकता। नेता प्रतिपक्ष ने जिन पांच तरीकों से ‘वोट चोरी’ के जो आरोप लगाए हैं, दरअसल गौर से देखने पर वे मानवीय भूलों अथवा लापरवाही का नतीजा अधिक नजर आते हैं और इस प्रकार की गड़बड़ियां वोटर लिस्ट में वर्षों से पाई जाती रही हैं जिन्हें चुनाव आयोग समय-समय पर दूर करने के प्रयास करता रहता है। इसीलिए चुनाव आयोग बिहार में ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ (एसआईआर) करवा रहा है ताकि ऐसी भूलों को सही किया जा सके और एक व्यक्ति का नाम अनेक जगह पर न हो अथवा गलत फोटो आदि मतदाता सूची से बाहर हो जाएं एवं चुनाव पारदर्शी तथा निष्पक्ष हो सकें।
मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर धांधली किए जाने के आरोप पहले भी लगाए गए हैं और अब बिहार चुनाव के कुछ समय पहले ही किए जा रही वोटर लिस्ट की रिवीजन से जुड़े मसले पर भी विपक्ष ने विरोध का बिगुल फूंक रखा है। आरोप है कि इसके जरिए तमाम वोटरों के नाम काट कर धांधली की जा सकती है। एसआईआर के प्रारंभिक दौर में लगभग 67 लाख वोटरों के नाम काट दिए गए हैं क्योंकि या तो वे राज्य से जा चुके हैं या जीवित नहीं हैं अथवा उनके भारतीय नागरिक होने पर ही संदेह है। इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में अहम सुनवाई जारी है। सुप्रीम कोर्ट ने बड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि यदि प्रक्रिया में गड़बड़ी सिद्ध हो जाती है तो एसआईआर के परिणामों को रद किया जा सकता है। साथ ही जस्टिस सूर्यकांत ने यह भी कहा कि चुनाव आयोग यह भी सही कह रहा है कि आधार को नागरिकता के निर्णायक प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह किसी की पहचान का प्रमाण हो सकता है। आधार एक्ट की धारा 9 भी ऐसा ही कहती है जबकि विपक्ष आधार के लिए लामबंद था। सर्वोच्च न्यायालय ने तो एसआईआर को जनहित में बताया। अब यह टिप्पणी पूरे विपक्ष के लिए बड़ा झटका मानी जा रही है जो चुनाव में धांधली के आरोपों के नाम पर सड़क से संसद तक सिर्फ हंगामा कर के अपना नैरेटिव खड़ा करने के प्रयास करता सा दिखाई दे रहा है।
चुनाव आयोग ने नेता प्रतिपक्ष से उनके ‘वोट चोरी’ के आरोपों को लेकर साक्ष्य मांगते हुए शपथ पत्र देने को कहा है क्योंकि किसी संवैधानिक संस्थान की विश्वसनीयता पर कोई सवाल उठाने के बाद यह जरूरी हो जाता है कि पुख्ता प्रमाण भी दिए जाएं लेकिन चुनाव आयोग के शपथ पत्र मांगने पर राहुल गांधी का यह कहना कि उनका सार्वजनिक बयान ही उनके हलफनामे के समान है, आयोग के प्रति अवमानना को ही दर्शाता है। इससे यह संदेश जाता है कि वह अपने दावों को कानूनी रूप से सिद्ध करने से बच रहे हैं। दूसरा तर्क यह है कि उन्होंने कर्नाटक की सिर्फ एक विधानसभा क्षेत्र के मतदाता आंकड़ों में चूक का विश्लेषण किया। इससे यह कैसे साबित होगा कि ये चूकें जान-बूझकर की गई हैं अथवा ये प्रशासनिक खामियांं हैं। हैरान करने वाली बात यह भी है कि जब मतदाता सूची में ये कथित हेरफेर हुए, तब कर्नाटक में कांग्रेस की ही सरकार थी। अब यहां प्रश्न उठता है कि अगर चुनावी हेरफेर इतना ही आसान है तो पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर और झारखंड के चुनावों में विपक्षी दल कैसे जीत गए? अगर ऐसा था तो लोकसभा चुनाव में स्वयं भारतीय जनता पार्टी अनिवार्य बहुमत से कुछ सीटें कम क्यों रह गई?
एक ऐसे लोकतंत्र में, जहां वैधता चुनावी प्रक्रिया की पवित्रता से आती है, व्यवस्थित धोखाधड़ी का आरोप जनता के विश्वास को तोड़ता है। अत: नेता प्रतिपक्ष जिम्मेदारी निभाते हुए अपने आरोपों के पक्ष में ठोस सुबूत पेश करें एवं निर्वाचन आयोग भी आत्ममंथन करे; क्योंकि चुनावी प्रक्रिया में जन विश्वास कायम रखने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग के साथ राजनीतिक दलों की भी है।





























