ब्लिट्ज ब्यूरो
नई दिल्ली। ज़िंदगी में दुख नमक की तरह है, जो आपको परिपक्व बनाता है या यूं कहें ‘कंप्लीट मैन’। जगजीत सिंह की ज़िंदगी में ‘नमक’ की कोई कमी नहीं रही। हर राह पर अपने बिछड़ते रहे, जिसे अंगुली गली पकड़कर चलना सिखाया, आंखों के सामने बड़ा होते देखा, वो उस दुनिया में चला गया, जहां तक न कोई चिट्ठी जाती है, ना कोई टेलीफोन। शायद, उन्होंने इसी आत्मा को निचोड़ देने वाले गम को महसूस कर गाया था, ‘जग ने छीना मुझसे, मुझे जो भी लगा प्यारा, सब जीता किए मुझसे, मैं हर दम ही हारा।’
1981 में आई फिल्म ‘प्रेम गीत’ का गाना ‘होठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो’, आज भी आपके जेहन में ताजा होगा। इसे प्रेम, प्यार, इश्क, मोहब्बत को जाहिर करने का सबसे आसान गीत माना जाता है। लेकिन, इस गीत के पीछे की आवाज जितनी रूमानी है, उनके हिस्से का दर्द उतना ही गहरा। कोई अभागा ही ऐसे दर्द को भोगे। जगजीत सिंह जी के साथ तो करोड़ों चाहने वालों का प्यार और आशीर्वाद भी था। फिर, भी उन्हें ऐसा दर्द भोगना पड़ा। इसी को प्रारब्ध कहते हैं, हमें अपने हिस्से का दर्द भोगना है और प्रेम गीत गाए जाना है।
जगजीत सिंह के गायक और म्यूजिक कंपोजर बनने की कहानी थोड़ी फिल्मी है। 8 फरवरी 1941 को श्री गंगानगर में पैदा हुए जगजीत सिंह को संगीत विरासत में मिला तो सुर-ताल दोनों समझ में आ गए थे। पंडित छगन लाल शर्मा जैसे आला दर्जे के गुरु मिले, जिनके रहमो-करम पर जगजीत सिंह ने दो साल तक शास्त्रीय संगीत सीखा। लेकिन, यह एक महान गायक की ज़िंदगी की शुरुआत भर ही थी। वक्त गुजरने के साथ उन्होंने उस्ताद ज़माल ख़ान साहब से ख्याल, ठुमरी और ध्रुपद को सीखा। पिता चाहते थे कि बेटा प्रशासनिक सेवा में जाए। जगजीत सिंह को सुरों से प्यार था और वह सुर-ताल के साथ आगे बढ़ने का फैसला करते हैं। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान उनकी संगीत में दिलचस्पी बढ़ी। इसी समय कुलपति ने जगजीत सिंह को उत्साहित किया। उनके कहने पर ही जगजीत सिंह ने मुंबई का रूख किया।
जगजीत सिंह मुंबई आ गए। शुरुआत में बड़ा ब्रेक नहीं मिला तो पेइंग गेस्ट के तौर पर रहते हुए विज्ञापनों के लिए जिंगल्स गाना शुरू किया। शादी या दूसरे समारोह में भी मौका मिलते ही परफॉर्म करते। यह कोशिश रोजी-रोटी को जुटाकर मुंबई जैसे शहर में टिके रहने के लिए थी। 1967 में जगजीत सिंह की मुलाकात चित्रा सिंह से हुई। दोनों गाने और संगीत से जुड़े थे तो पहले प्यार हुआ, फिर इकरार और आगे चलकर 1969 में दोनों ने सात जन्मों के लिए एक-दूसरे का हाथ थाम लिया। फिल्म ‘लीला’ में डिंपल कपाड़िया और विनोद खन्ना की जोड़ी थी लेकिन, इसका संगीत औसत रहा। इसके बाद भी ‘बिल्लू बादशाह’, ‘कानून की आवाज’, ‘राही’, ‘ज्वाला’, ‘लौंग दा लश्कारा’, ‘सितम’ जैसी फिल्मों के भी गीत-संगीत नहीं चले। इन फिल्मों ने भी खास कमाल नहीं किया। वह निराश नहीं हुए। कोशिश जारी रखी।
1975 का साल जगजीत सिंह और चित्रा सिंह के लिए खुशनुमा अहसास लेकर आया। उनका एलबम ‘द अनफॉरगेटेबल्स’ रिलीज हुआ और देखते ही देखते दोनों की जोड़ी संगीत प्रेमियों की जुबां पर चढ़ गई। इसके बाद जगजीत सिंह ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और एक के बाद एक कई गाने और गजल गाए।
80 के दशक में जगजीत सिंह की व्यस्तता बढ़ने लगी। शो, एलबम, फिल्मों में गाने के कई ऑफर मिलते गए और जगजीत सिंह एक-एक सीढ़ी चढ़ते हुए आगे बढ़ते गए। 1987 में जगजीत सिंह की डिजिटल सीडी एलबम ‘बियोंड टाइम’ आई, इस एलबम को करने वाले जगजीत सिंह पहले भारतीय संगीतकार बने। वहीं, ज़िंदगी भी अपने गम दिखा रही थी। एक तरफ जगजीत सिंह ऊपर चढ़ रहे थे तो दूसरी तरफ ज़िंदगी नीचे गिराती जा रही थी।
1990 में जगजीत सिंह के इकलौते बेटे विवेक की 18 साल की उम्र में मौत हो गई। इस घटना ने जगजीत सिंह और चित्रा सिंह को तोड़कर रख दिया था। कहा जाता है कि विवेक के गुजरने के बाद जगजीत और चित्रा ने गाना छोड़ दिया था। लेकिन, चाहने वालों की दुआ रंग लाई, दोनों ने फिर से माइक थामा और राग छेड़ा, ‘चिट्ठी ना कोई संदेश, जाने वो कौन सा देश, जहां तुम चले गए।’
इस गीत में दोनों का दर्द झलकता है। यह गीत सुपरहिट रहा और हमेशा के लिए लोगों की प्लेलिस्ट का हिस्सा बन गया। जगजीत सिंह के गाए कई गाने ‘होश वालों को खबर क्या’, ‘बड़ी नाज़ुक है ये मंज़िल’, ‘कागज की कश्ती’, ‘चुपके-चुपके रात दिन’, ‘तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो’, ‘तुमको देखा तो ये खयाल आया’, ‘तुम बिन’ आज भी संगीत प्रेमियों की पहली पसंद हैं।
जगजीत सिंह ने न सिर्फ गजल गाई, मिर्ज़ा ग़ालिब, मीर, मजाज़, फिराक़ गोरखपुरी जैसे शायरों की नज़्मों को आवाज़ दी। हिंदी, उर्दू, पंजाबी समेत कई भाषाओं में गाने वाले जगजीत सिंह को 2003 में भारत सरकार ने पद्मभूषण से नवाज़ा था। 10 अक्टूबर 2011 को जगजीत सिंह ने दुनिया को अलविदा कह दिया था।