ब्लिट्ज ब्यूरो
कानपुर। क्लाइमेंट चेंज के दौर में जब हमारी खाद्य श्रृंखला पर कहीं कम तो कहीं ज्यादा असर दिखने लगा है, तो सवाल उठना चाहिए कि गेहूं का उत्पादन लगातार कैसे बढ़ रहा है? इस सवाल का जवाब कानपुर के चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में मिलता है। बीते दो दशकों में गेहूं की कई ऐसी किस्में किसानों को दी गई हैं, जो जबर्दस्त गर्मी सहने के साथ कम पानी में पूरा उत्पादन दे रही हैं।
सीएसए यूनिवर्सिटी के कुलपति आनंद कुमार सिंह ने बताया कि कृषि वैज्ञानिकों ने दो-तीन दशक पहले ही अनुमान लगा लिया था कि भविष्य में कृषि उत्पादन पर बदलते मौसम का असर होगा। इन परिस्थितियों में भारत को खाद्य सुरक्षा देने के लिए विभिन्न स्तरों पर प्रयास किए गए। कानपुर की सीएसए यूनिवर्सिटी गेहूं पर शोध में देश के सबसे पुराने संस्थानों में एक है।
इन किस्मों से भर रहा पेट
आनंद कुमार ने बताया कि साल 2002 में सबसे पहले गेहूं की के-7903 (हलना) वैरायटी किसानों को सौंपी गई। इस प्रजाति में तेज गर्मी में गेहूं के पौधे के फलने-फूलने में भी कोई दिक्क त नहीं होती। देरी से बोआई में भी उत्पादन पर फर्क नहीं पड़ता। 2005 में के-9423 (उन्नत हलना) में भी ज्यादा तापमान को सहने की काफी क्षमता थी। 2018 में के-1317 किस्म को पूरे भारत में लगाने के लिए केंद्र सरकार से अनुमति मिली। गेहूं को कम से कम 6-8 बार सिंचाई की जरूरत पड़ती है, लेकिन के-1317 को सिर्फ 2-3 बार सिंचाई चाहिए।