ब्लिट्ज ब्यूरो
नई दिल्ली। राजनीतिक गलियारों में इस बात की बहुत चर्चा थी कि भारतीय जनता पार्टी अंतिम समय में किसी ओबीसी नाम को सामने ला सकती है। लोगों के सामने मध्यप्रदेश का उदाहरण दिया जा रहा था पर महाराष्ट्र में ऐसा कुछ नहीं हुआ।
महाराष्ट्र का एक ऐसा नेता जिसने अपनी पार्टी को लगातार तीसरी बार सबसे बड़ी पार्टी के रूप में स्थापित किया। पिछले 11 सालों में प्रदेश की राजनीति में उसका सामना राज्य की राजनीति के चाणक्य शरद पवार और हिंदू हृदय सम्राट बाला साहब ठाकरे की विरासत से था पर वह डिगा नहीं। बहुत सी विपरीत परिस्थितियां आईं ंपर वो आगे बढ़ता गया। बात हो रही है देवेंद्र फडणवीस की जो महाराष्ट्र के तीसरी बार सीएम बने।
उनका राजनीतिक उत्थान ऐसे समय में हुआ है जब उनकी जाति उनके लिए सबसे बड़ी खलनायक बन चुकी थी पर उन्होंने इसे कभी नकारात्मक पक्ष नहीं माना।
अपनी रणनीति के बल पर वह जनता के बीच ‘देवा भाऊ’ के नाम से मशहूर होते हैं और सारे समीकरणों को ध्वस्त करके अपनी पार्टी को प्रचंड बहुमत दिलाते हैं। पर चाणक्य बनने के लिए इतना ही काफी नहीं होता। जिस पार्टी में कुछ दिनों पहले शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे जैसी महारथी बिल्कुल ऐसी ही परिस्थितियों मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने से चूक गए थे , फडणवीस ने उसे भी हासिल करके दिखा दिया। यानी विपक्ष पर सर्जिकल स्ट्राइक करने में माहिर तो रहे ही, पार्टी के अंदर हर तरह के तीरों को भोथरा करने में उस्तादी दिखाई। इस तरह महाराष्ट की राजनीति को सही मायने में एक नया चाणक्य मिल गया है।
देवेंद्र फडणवीस के मुख्यमंत्री बनाए जाने का इशारा भारतीय जनता पार्टी की ओर कई बार किया जा चुका था पर जिस तरह पिछले कुछ सालों में मुख्यमंत्रियों के नामों के फैसले बीजेपी में हुए हैं उसके चलते राजनीतिक गलियारों में अफवाहों के बाजार गर्म थे। मध्यप्रदेश में बीजेपी ने जिस तरह शिवराज सिंह चौहान को किनारे लगा दिया, जिस तरह राजस्थान में वसुंधरा राजे का पत्ता साफ हुआ, उसे देखते हुए देवेंद्र फडणवीस के नाम पर मुहर लगने में थोड़ा संदेह तो सभी को नजर आ रहा था। इसके साथ ही देवेंद्र फडणवीस का ब्राह्मण होना वर्तमान राजनीतिक माहौल में सीएम पद के लिए सबसे नेगेटिव बन जा रहा था। फिर आखिर वो कौन से कारण रहे जिसके चलते इस मराठा पेशवा का वो हश्र नहीं हुआ जिसका लोगों को संदेह था?
मध्यप्रदेश और राजस्थान से कठिन था महाराष्ट्र में बीजेपी के विकास का रास्ता
2014 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को महाराष्ट्र में नंबर एक पार्टी बनाना बहुत मुश्किल था क्योंकि बीजेपी की ही विचारधारा वाली शिवसेना पहले से ही राज्य में बहुत मजबूत थी पर फडणवीस ने बीजेपी को नंबर वन पार्टी बनाकर खुद को साबित कर दिया था। मध्य प्रदेश और राजस्थान में शिवराज सिंह चौहान और राजस्थान में वसुंधरा राजे के पहले भी इन राज्यों में बीजेपी बहुत मजबूत थी और कई बार सरकार बना चुकी थी। महाराष्ट्र इन राज्यों से बहुत अलग था। महाराष्ट्र में केवल कांग्रेस ही एक पार्टी नहीं थी, यहां पर शरद पवार और शिवसेना के रूप में कई कोण थे। उनके बीच में पार्टी को नंबर एक बनाने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देवेंद्र फडणवीस ने जिस तरह निभाई वो उन्हें प्रदेश का नया चाणक्य कहने के लिए काफी है।
महाराष्ट्र की जटिल राजनीति के लिए देवेंद्र फडणवीस जैसा कोई नहीं
2019 विधानसभा चुनावों के बाद जब बीजेपी को दगा देते हुए शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे ने सीएम बनने की जिद पकड़ ली थी तब फडणवीस ने शरद पवार जैसे राजनीतिज्ञ को मात देकर सरकार बनाई थी। ये बात अलग है कि अजित पवार अपनी पार्टी के विधायकों को अपने साथ नहीं ला सके और 80 घंटे के अंदर खेल हो गया। पर आग सुलगाने का काम तो फडणवीस ने कर ही दिया था। थोड़ा टाइम लगा पर फडणवीस की लगाई आग ने शरद पवार की राजनीति को महाराष्ट्र में खत्म कर दिया। जूनियर पवार यानि अजित पवार बीजेपी के सहयोगी बन चुके हैं। उनके साथ के चलते ही पिछले ढाई साल से प्रदेश में बीजेपी की सरकार चल रही थी। अब एक बार फिर वो बीजेपी की सरकार के साथ रहेंगे। शायद यही कारण है कि शिवसेना और फिर एनसीपी के टूटने पर जितनी गालियां फडणवीस को सुनने को मिलीं, उतनी बीजेपी को नहीं। उद्धव ठाकरे से लेकर मनोज जरांगे तक ने फडणवीस का राजनीतिक करियर खत्म करने की धमकी दी थी। शरद पवार तो उनकी जाति तक पहुंच गए थे पर फडणवीस डिगे नहीं। जिसने गालियां सुनीं , ताज पहनने का हक भी उसी को मिलना चाहिए।
ब्राह्मण होने को नेगेटिव की बजाय प्लस पॉइंट बनाया
बीजेपी महाराष्ट्र की राजनीति में ओबीसी वोटों के बल पर सरकार बनाने का सपना देख रही थी। इसके बावजूद राज्य में सबसे अधिक रैलियां करने के लिए फडणवीस को जिम्मेदारी सौंपी गई। पार्टी जानती थी कि किसी ओबीसी को आगे बढ़ाने से मराठे नाराज हो सकते थे और किसी मराठे को नेतृत्व देने से ओबीसी वोट छिटक सकते थे क्योंकि जरांगे पाटील के नेतृत्व में पिछले पांच साल जो मराठा आरक्षण का आंदोलन चला, उससे ओबीसी और मराठों के बीच में एक दूरी बन गई थी। दरअसल ओबीसी को लगता था कि मराठों को रिजर्वेशन मिला तो ओबीसी कोटे में उनकी हिस्सेदारी घट जाएगी। शायद यही कारण रहा होगा पार्टी ने देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में महाराष्ट्र का विधानसभा चुनाव लड़ा था।
अगर फडणवीस के ब्राह्मण होने से या, उनके कार्यकाल से लोगों के चिढ़ होने की बात होती, तो शायद उन्हें पार्टी का मुख्य चेहरा बनाकर प्रचार प्रसार नहीं करवाया गया होता। भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं पीएम नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से कहीं बहुत अधिक रैलियां और सभाएं देवेंद्र फडणवीस ने कीं। जाहिर है कि फडणवीस को साइडलाइन करके अगर किसी और को सीएम बनाया जाता तो कर्मठ कार्यकर्ता हतोत्साहित होते।
एक समर्पित कार्यकर्ता की तरह जो कहा गया वो किया
पार्टी के प्रति समर्पण का जो उदाहारण देवेंद्र फडणवीस ने रखा है, वो बिरले ही देखने को मिलता है। शायद यही वजह है कि पीएम मोदी के वह भरोसमंद बनकर उभरे हैं। अगर वह सीएम नहीं बनते तो संभावना थी कि उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जाता। जो किसी भी पार्टी कार्यकर्ता के लिए सपना होता है। फडणवीस देश के कुछ चुनिंदा नेताओं में शामिल हो गए हैं जिन्होंने लोकसभा चुनावों में अपेक्षित सफलता न मिलने पर इस्तीफे की पेशकश की। इससे भी बढ़कर पांच साल प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में बेहतरीन काम करने वाला, फिर विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी को दूसरी बार अधिकतम सीटें दिलवाने वाले नेता ने अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के कहने पर अपने से एक बहुत जूनियर शख्स के नीचे डिप्टी सीएम बनना भी स्वीकार कर लिया। यही नहीं, सीनियर होने के बावजूद , पार्टी और शासन में तगड़ी पकड़ रखते हुए भी कभी मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को शिकायत का मौका नहीं दिया। अन्यथा कई बार लोग दबाव में आकर कमतर पद तो स्वीकार कर लेते हैं पर मन में बसी टीस उन्हें चैन से रहने नहीं देती। मगर फडणवीस ने कभी ऐसा महसूस नहीं होने दिया।
बीजेपी का केंद्र में पूर्ण बहुमत में न होना भी कर गया काम
हालांकि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत होने या न होने से महाराष्ट्र में सीएम पद के लिए फडणवीस के चयन से कोई संबंध नहीं है पर मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान हों या राजस्थान में वसुंधरा राजे को किनारे लगाने में केंद्र में प्रचंड बहुमत होने ने भी काम किया था। दरअसल केंद्र में बहुमत होना किसी भी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को नैतिक रूप से इतना ताकत दे देता है कि वह कोई भी फैसला लेने का साहस कर लेता है. जैसे आज बीजेपी कोई फैसले लेती है तो संघ उसमें अड़ंगा लगाने का काम कर सकता है। 2024 लोकसभा चुनाव के पहले तक ऐसा नहीं था।