ब्लिट्ज ब्यूरो
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्यपाल की तरफ से फैसला लेने में देरी को आधार बना कर कोर्ट बिल को अपनी तरफ से मंजूरी नहीं दे सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया है कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयकों पर फैसला लेने के लिए किसी समय सीमा के दायरे में नहीं बांधा जा सकता है। 5 जजों की बेंच ने यह भी कहा है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति की तरफ से फैसला लेने में की जा रही देरी को आधार बना कर सुप्रीम कोर्ट बिल को अपनी तरफ से मंजूरी नहीं दे सकता है। राष्ट्रपति की तरफ से भेजे गए प्रेसिडेंशियल रेफरेंस का जवाब देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने और भी कई अहम बातें कही हैं।
कैसे शुरू हुआ मामला?
इस साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट के 2 जजों की बेंच ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास लंबित तमिलनाडु सरकार के 10 विधेयकों को अपनी तरफ से मंजूरी दे दी थी। कोर्ट ने राज्यपाल या राष्ट्रपति के फैसला लेने की समय सीमा भी तय कर दी थी। कोर्ट ने कहा था कि अगर तय समय में वह फैसला न लें तो राज्य सरकार कोर्ट आ सकती है।
राष्ट्रपति ने पूछे सवाल
सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले को लेकर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत प्रेसिडेंशियल रेफरेंस भेजा. इस रेफरेंस में राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल किए। उन पर सुनवाई के लिए चीफ जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई ने अपनी अध्यक्षता में 5 जजों की संविधान पीठ गठित की। बेंच के बाकी सदस्य थे- जस्टिस सूर्य कांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी एस नरसिम्हा और जस्टिस ए एस चंदुरकर।
संविधान पीठ का जवाब
अब संविधान पीठ ने सभी सवालों का जवाब दिया है. इसमें कही गई मुख्य बातें यह हैं :-
1. अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास 3 विकल्प हैं- वह विधेयक को मंजूरी दे सकते हैं, विचार के लिए राष्ट्रपति को भेज सकते हैं या विधानसभा को वापस भेज सकते हैं।
2. इन विकल्पों का इस्तेमाल करने के लिए वह मंत्रिमंडल की सलाह से नहीं बंधे हैं। अगर विधानसभा उसी विधेयक को दोबारा भेज दे, तब भी यह नहीं कहा जा सकता कि राज्यपाल को इसे मानना ही होगा। वह दोबारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं।
3. राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयक पर फैसला लेने के लिए समय सीमा में बांधना संविधान की भावना के विपरीत होगा
4. राज्यपाल की तरफ से फैसला लेने में देरी को आधार बना कर सुप्रीम कोर्ट बिल को अपनी तरफ से मंजूरी नहीं दे सकता। अनुच्छेद 142 के तहत हासिल विशेष शक्ति का सुप्रीम कोर्ट ऐसा इस्तेमाल नहीं कर सकता।
5. किसी कानून के बनने के बाद ही कोर्ट उस पर विचार कर सकता है। राज्यपाल या राष्ट्रपति के पास लंबित विधेयक पर कोर्ट विचार नहीं कर सकता।
6. अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल के खिलाफ कोई अदालती कार्रवाई नहीं हो सकती। अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के फैसले में कोर्ट दखल नहीं दे सकता।
7. अगर राज्यपाल अनिश्चित समय तक विधेयक को अपने पास लंबित रखें तो कोर्ट उनके फैसले में हो रही देरी का कारण पूछ सकता है और उसके आधार पर राज्यपाल को सीमित निर्देश दे सकता है।
8. अगर कोई विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजा गया है तो वह अपने विवेक से निर्णय ले सकते हैं। उनके लिए यह जरूरी नहीं कि वह अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से उसकी राय पूछें।
9. क्या केंद्र और राज्य के बीच के विवाद को सिर्फ अनुच्छेद 131 के तहत ही सुप्रीम कोर्ट में लाया जा सकता है? इस सवाल का जवाब नहीं दिया जा रहा है. इस मामले में सवाल प्रासंगिक नहीं है. इसके बिना भी सभी मुख्य सवालों का जवाब दे दिया गया है.
क्या होगा असर?
यहां ध्यान रखना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की बेंच की तरफ से व्यक्त की गई राय को तमिलनाडु मामले पर पुनर्विचार की तरह नहीं देखा जा सकता है। फिलहाल वह आदेश बना हुआ है। केंद्र सरकार अब अगर चाहे तो उस फैसले को चुनौती दे सकती है। संविधान पीठ ने राष्ट्रपति की तरफ से पूछे गए सवालों के जवाब में अपनी राय व्यक्त की है। इसका असर भविष्य में राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच विधेयकों को लेकर उठने वाले विवादों पर पड़ेगा।































