विजयादशमी के महापर्व पर ठीक 100 वर्ष पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई थी। यह हजारों वर्षों से चली आ रही उस परंपरा का पुनर्स्थापन था, जिसमें राष्ट्र-चेतना समय-समय पर उस युग की चुनौतियों का सामना करने के लिए नए-नए अवतारों में प्रकट होती है। इस युग में संघ उसी अनादि राष्ट्र-चेतना का पुण्य अवतार है। यह हमारी पीढ़ी के स्वयंसेवकों का सौभाग्य है कि हमें संघ के शताब्दी वर्ष जैसा महान अवसर देखने को मिल रहा है। मैं इस अवसर पर राष्ट्रसेवा के संकल्प को समर्पित कोटि-कोटि स्वयंसेवकों को शुभकामनाएं देता हूं। मैं संघ के संस्थापक और हम सभी के आदर्श परम-पूज्य डॉक्टर हेडगेवार के चरणों में श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।
– प्रारंभ से ही संघ राष्ट्रभक्ति और सेवा का पर्याय रहा है। जब विभाजन ने लाखों परिवारों को बेघर कर दिया, तब स्वयंसेवकों ने शरणार्थियों की सेवा की
जिस तरह विशाल नदियों के किनारे मानव सभ्यताएं पनपती हैं, उसी तरह संघ के किनारे सैकड़ों जीवन पुष्पित-पल्लवित हुए हैं। जैसे नदी जिन रास्तों से बहती है, उन क्षेत्रों को अपने जल से समृद्ध करती है, वैसे ही संघ ने इस देश के हर क्षेत्र, समाज के हर आयाम को स्पर्श किया है। इसके अलग-अलग संगठन जीवन के हरेक पक्ष से जुड़कर राष्ट्र की सेवा करते हैं। शिक्षा, कृषि, समाज-कल्याण, आदिवासी कल्याण, महिला सशक्तिकरण जैसे कई क्षेत्रों में संघ निरंतर कार्य करता रहा है। विविध क्षेत्रों में काम करने वाले इसके हर संगठन का उद्देश्य एक ही है, भाव एक ही है….राष्ट्र प्रथम !
अपने गठन के बाद से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्र-निर्माण का विराट उद्देश्य लेकर चला। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने व्यक्ति-निर्माण से राष्ट्र-निर्माण का रास्ता चुना और इस पर चलने के लिए जो कार्यपद्धति चुनी, वह थी नित्य-नियमित चलने वाली शाखाएं। संघ शाखा का मैदान, एक ऐसी प्रेरणा भूमि है, जहां से स्वयंसेवक की ‘अहम ्से वयं’ की यात्रा शुरू होती है। संघ की शाखाएं, व्यक्ति-निर्माण की यज्ञ वेदी हैं।
राष्ट्र-निर्माण का महान उद्देश्य, व्यक्ति-निर्माण का स्पष्ट पथ और शाखा जैसी सरल, जीवंत कार्यपद्धति संघ की सौ वर्षों की यात्रा के आधार बने।
इन्हीं स्तंभों पर खड़े होकर संघ ने लाखों स्वयंसेवकों को गढ़ा, जो विभिन्न क्षेत्रों में देश को आगे बढ़ा रहे हैं। संघ जब से अस्तित्व में आया, इसके लिए देश की प्राथमिकता ही उसकी अपनी प्राथमिकता रही। आजादी की लड़ाई के समय डॉ हेडगेवार समेत अनेक कार्यकर्ताओं ने स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया, डॉक्टर साहब कई बार जेल गए। आजादी की लड़ाई में कितने ही स्वतंत्रता सेनानियों को संघ संरक्षण देता रहा, उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करता रहा। आजादी के बाद भी यह निरंतर राष्ट्र साधना में लगा रहा। इस यात्रा में संघ के खिलाफ साजिशें भी हुईं, उसे कुचलने के प्रयास भी हुए। ऋषितुल्य गुरुजी को झूठे केस में फंसाया गया लेकिन संघ के स्वयंसेवकों ने कभी कटुता को स्थान नहीं दिया, क्योंकि वे जानते हैं, हम समाज से अलग नहीं हैं, समाज हमसे ही तो बना है। समाज के साथ एकात्मता और सांविधानिक संस्थाओं के प्रति आस्था ने स्वयंसेवकों को हर संकट में स्थितप्रज्ञ रखा है, समाज के प्रति संवेदनशील बनाए रखा है।
प्रारंभ से ही संघ राष्ट्र-भक्ति और सेवा का पर्याय रहा है। जब विभाजन ने लाखों परिवारों को बेघर कर दिया, तब स्वयंसेवकों ने शरणार्थियों की सेवा की। हर आपदा में संघ के स्वयंसेवक अपने सीमित संसाधनों के साथ सबसे आगे खड़े रहे। यह केवल राहत नहीं थी, यह राष्ट्र की आत्मा को संबल देने का कार्य था। खुद कष्ट उठाकर दूसरों के दुख हरना… यह हर स्वयंसेवक की पहचान है। आज भी प्राकृतिक आपदा में हर जगह स्वयंसेवक सबसे पहले पहुंचने वालों में से एक होते हैं। अपनी सौ वर्षों की इस यात्रा में संघ ने समाज के अलग-अलग वर्गों में आत्म-बोध, स्वाभिमान जगाया। यह देश के उन क्षेत्रों में भी कार्य करता रहा है, जहां पहुंचना सबसे कठिन है। संघ दशकों से आदिवासी परंपराओं और मूल्यों को सहेजने-संवारने में अपना सहयोग देता रहा है, अपना कर्तव्य निभाता रहा है। आज सेवा भारती, विद्या भारती, एकल विद्यालय, वनवासी कल्याण आश्रम, आदिवासी समाज के सशक्तीकरण का स्तंभ बनकर उभरे हैं।
समाज में सदियों से घर कर चुकी जो बीमारियां हैं, जो ऊंच-नीच की भावना है, जो कुप्रथाएं हैं, ये हिंदू समाज की बड़ी चुनौतियां रही हैं। डॉक्टर साहब से लेकर आज तक, संघ की हर विभूति ने, हर सर संघचालक ने भेदभाव और छुआछूत के खिलाफ लड़ाई लड़ी है। गुरुजी ने निरंतर हिंदू पतितो भवेत् की भावना को आगे बढ़ाया। बाला साहब देवरस कहते थे-छुआछूत पाप नहीं, तो दुनिया में कोई पाप नहीं! सरसंघचालक रहते हुए रज्जू भैया और केएस सुदर्शन ने भी इसी भावना को आगे बढ़ाया। वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी समरसता के लिए समाज के सामने एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान का स्पष्ट लक्ष्य रखा है।
जब सौ साल पहले संघ अस्तित्व में आया था, तो उस समय की आवश्यकताएं और थीं, संघर्ष कुछ और थे लेकिन आज सौ वर्षों बाद जब भारत विकसित होने की तरफ बढ़ रहा है, तब आज की चुनौतियां अलग हैं, संघर्ष अलग हैं। दूसरे देशों पर आर्थिक निर्भरता, हमारी एकता को तोड़ने की साजिशें, डेमोग्राफी में बदलाव के षड्यंत्र की चुनौतियों से हमारी सरकार तेजी से निपट रही है। मुझे खुशी है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी इन चुनौतियों से निपटने के लिए ठोस रोडमैप बनाया है। संघ के पंच परिवर्तन-स्व-बोध, सामाजिक समरसता, कुटुंब प्रबोधन, नागरिक शिष्टाचार और पर्यावरण, ये संकल्प हर स्वयंसेवक के लिए देश के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को परास्त करने की बहुत बड़ी प्रेरणा हैं।
स्व-बोध की भावना का उद्देश्य गुलामी की मानसिकता से मुक्त होकर अपनी विरासत पर गर्व करना और स्वदेशी के मूल संकल्प को आगे बढ़ाना है। सामाजिक समरसता के जरिये वंचित को वरीयता देकर सामाजिक न्याय की स्थापना का प्रण है। हमारी सामाजिक समरसता को आज घुसपैठियों के कारण डेमोग्राफी में आ रहे बदलाव से बड़ी चुनौती मिल रही है। देश ने इससे निपटने के लिए डेमोग्राफी मिशन की घोषणा की है। हमें कुटुंब प्रबोधन, यानी परिवार संस्कृति और मूल्यों को मजबूत बनाना है। नागरिक शिष्टाचार के जरिये नागरिक कर्तव्य का बोध हर देशवासी में भरना है। इन सबके साथ अपने पर्यावरण की रक्षा करते हुए आने वाली पीड़ियों के भविष्य की सुरक्षित करना है।
अपने इन संकल्पों को लेकर संघ अब अगली शताब्दी की यात्रा शुरू कर रहा है। 2047 के विकसित भारत में संघ का हर योगदान देश की ऊर्जा बढ़ाएगा, देश को प्रेरित करेगा। पुनः प्रत्येक स्वयंसेवक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं!