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तिब्बत के लिए क्यों खास है तवांग मठ

ड्रैगन आशंकित, तिब्बती विद्रोह को भड़काने के लिए किया जा सकता है इसका इस्तेमाल

by Blitz India Media
July 11, 2025
in Hindi Edition
Why is Tawang Monastery special for Tibet
ब्लिट्ज ब्यूरो

नई दिल्ली। तिब्बत को लेकर चीन की नीयत हमेशा क्रूर रही है। इसे लेकर चीन की रणनीतियां जब-तक विश्व की आलाेचनाओं के केंद्र में रही हैं। तिब्बत का तवांग मठ अपनी खूबसूरती के साथ-साथ रणनीतिक महत्व के लिए भी निरंतर सुर्खियों में रहा है। भारत के पूर्वोत्तर में स्थित राज्य अरुणाचल में एक छोटा सा मगर पहाड़ों, घाटियों और जंगलों से घिरा एक सुंदर जिला है तवांग। इसी तवांग में एक मठ है, जिसे तवांग मठ कहा जाता है। 10,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित तवांग मठ अरुणाचल प्रदेश के सबसे बड़े और सबसे प्रसिद्ध मठों में से एक है। चारों ओर हिमालय के खूबसूरत नजारे अपने भीतर समेटे हुए अरुणाचल प्रदेश उगते सूरज को सबसे पहले सलाम करता है। भूटान, तिब्बत और म्यांमार की सीमाओं को छूता अरुणाचल ऐसा है कि इससे किसी को भी प्यार हो जाए। मगर, इसी अरुणाचल और उसके दिल तवांग पर चीन की गंदी नजर है। उसे तवांग से बेहद डर भी लगता है।
तवांग में ही 17वीं सदी में छठे दलाई लामा का जन्म हुआ था। कुछ एक्सपर्ट्स का मानना है कि चीन तवांग जैसे बौद्ध धर्म के पवित्र स्थानों पर कब्जा करना चाहता है। वो ऐसा करके तिब्बत पर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहता है। 1959 में जब दलाई लामा भागकर भारत आए तो वे सबसे पहले तवांग पहुंचे थे। उन्होंने पहाड़ों को पैदल पार किया था। 1962 की लड़ाई में चीन ने तवांग पर कब्जा कर लिया था, मगर युद्धविराम के तहत समझौते में उसे अपना कब्जा छोड़ना पड़ा था। तवांग का तिब्बत के साथ गहरा जातीय और सांस्कृतिक संबंध है।
तवांग भारत का चिकननेक, स्ट्रैटेजिक पॉइंट
चीन के लिए तवांग अरुणाचल प्रदेश में घुसने का एकमात्र रास्ता है। एक तरह से यह भारत का चीन की सीमा के पास का चिकननेक है। यह भारत के उत्तर-पूर्वी हिस्से में जाने का भी रास्ता है। मतलब, चीन तवांग के जरिये अरुणाचल प्रदेश और बाकी नॉर्थ-ईस्ट इंडिया में आसानी से पहुंच सकता है। ‘ता’ का मतलब है-घोड़ा और ‘वांग’ का अर्थ है-आशीर्वाद दिया हुआ। चूंकि इस स्थान को दिव्य घोड़े ने अपना आशीर्वाद दिया था, इसलिए इसका नाम तवांग पड़ा।
तवांग मठ का तिब्बत से गहरा नाता
तवांग मठ भारत का सबसे बड़ा बौद्ध मठ है। यह तिब्बत की राजधानी ल्हासा के पोताला महल के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा मठ है। यह तवांग नदी की घाटी में तवांग कस्बे के निकट स्थित तवांग चू घाटी में है। यह तिब्बत और भूटान की सीमा के पास है। इस मठ को तिब्बती भाषा में गादेन नामग्याल ल्हात्से कहते हैं। इसका मतलब है-पूर्ण विजय का दिव्य स्वर्ग। इसकी स्थापना 1680-1681 में मेराक लामा लोद्रे ग्यात्सो ने की थी। यह 5वें दलाई लामा नगावांग लोबसांग ग्यात्सो की इच्छा के अनुसार हुआ था। यह वज्रयान बौद्ध धर्म के गेलुग स्कूल से जुड़ा है। इसका ल्हासा के ड्रेपुंग मठ से धार्मिक संबंध था। यह संबंध ब्रिटिश शासन के दौरान भी जारी रहा। यह मठ वास्तुकला और आध्यात्मिकता का एक उत्कृष्ट नमूना है।
चीन का डर
कुछ चीनी जानकार लोगों को यह आशंका है कि सीमा के दोनों तरफ रहने वाले लोगों के बीच जातीय संबंध है। ऐसे में तवांग का इस्तेमाल भविष्य में तिब्बती विद्रोह को भड़काने के लिए किया जा सकता है। मतलब, अगर कभी तिब्बत में कोई आंदोलन होता है, तो तवांग के लोगों को उकसाया जा सकता है, चीन को इसी बात का डर है। दरअसल, तिब्बत की राजधानी ल्हासा और तवांग के बौद्ध मठों के बीच गहरा संबंध है।
तवांग मठ: दूर से देखने में किसी किले जैसा
तवांग मठ दूर से दुर्ग या किले जैसा दिखाई देता है। इसके प्रवेश द्वार का नाम ‘काकालिंग’ है जो देखने में झोपड़ी जैसा लगता है और इसकी दो दीवारों के निर्माण में पत्थरों का प्रयोग किया गया है। इन दीवारों पर खूबसूरत चित्रकारी की गई है जो पर्यटकों को बहुत पसंद आती है। तवांग मठ तीन मंजिला है। इसके चारों ओर 925 फीट (282 मीटर) लंबी दीवार है। इस परिसर में 65 रिहायशी इमारतें हैं। मठ की लाइब्रेरी में पुरानी और कीमती धार्मिक पुस्तकें हैं। इनमें मुख्य रूप से कंग्यूर और तेंग्यूर शामिल हैं। कंग्यूर और तेंग्यूर बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं।
चीन बार-बार अरुणाचल पर जताता है दावा
इसी साल मई में चीन ने अरुणाचल प्रदेश में कुछ जगहों के नाम बदल दिए थे, जिसके बाद भारत और चीन के बीच विवाद बढ़ गया था। इससे पहले बीते साल अक्टूबर में दोनों देश हिमालय में अपनी चार साल पुरानी सैन्य तनातनी को कम करने के लिए सहमत हुए थे। इससे सैनिकों को पीछे हटाने में मदद मिली। लेकिन, अब चीन ने फिर से अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा जताया है। चीन अरुणाचल प्रदेश को ‘जांगनान’ कहता है और इसे दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताता है।

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अरुणाचल हमारा अभिन्न हिस्सा
भारत ने हमेशा से चीन के इस दावे को खारिज किया है। उस समय भी भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा था कि कोई भी रचनात्मक नामकरण इस सच्चाई को नहीं बदल सकता कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न और अविभाज्य हिस्सा था, है और हमेशा रहेगा। इससे पहले बीते साल अप्रैल में भी चीन ने अरुणाचल प्रदेश में लगभग 30 जगहों के नाम बदल दिए थे। भारत ने इसे बेतुका करार देते हुए कहा था कि यह क्षेत्र देश का अभिन्न अंग है।
भारत-चीन के बीच 3800 किमी
की लंबी सीमा
भारत और चीन के बीच 3,800 किलोमीटर (2,360 मील) लंबी सीमा है, जो ठीक से तय नहीं है। 1962 में दोनों देशों के बीच एक छोटी लेकिन भयानक लड़ाई हुई थी। इसके अलावा, दोनों देशों के सैनिकों के बीच झड़पें होती रही हैं। 2020 में गलवां घाटी में हुई ऐसी लड़ाई में 20 भारतीय और चार चीनी सैनिक मारे गए थे। इस तरह की घटनाओं से दोनों देशों के बीच तनाव बना रहता है।
जब अंग्रेजों ने अक्साई चिन
को भारत के हिस्से में रखा
1865 की बात है, जब ब्रिटिश सर्वेयर डब्ल्यू एच जॉनसन ने भारत-तिब्बत के बीच एक सीमारेखा खींच दी। इसके बाद 1893 में एक सीमा रेखा खींची गई, जिसे मैकार्टनी-मैकडोनाल्ड लाइन कहा जाता है, जिसमें अक्साई चिन के ज्यादातर हिस्से को चीन के क्षेत्र में दिखाया गया। 1897 में एक और बॉर्डर लाइन खींची गई, जिसमें अक्साई चिन को भारत का हिस्सा दिखाया गया। इसे जॉनसन-आर्डाच लाइन कहा जाता है।
शिमला समझौता चीन के साथ भी
1914 में सीमा विवाद को लेकर शिमला में एक समझौता हुआ था। उस वक्त ब्रिटिश भारत के विदेश सचिव हेनरी मैकमोहन ने भारत और तिब्बत के बीच 890 किलोमीटर लंबी सीमा खींच दी। इसे मैकमोहन लाइन कहा गया। भारत तो इसे अब तक मानता आया। मगर, चीन ने 1950 में तिब्बत पर कब्जा कर लिया। वह अरुणाचल को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा मानता है।
चीन जताता है दावा
1947 में आजाद होने पर भारत ने जॉनसन-आर्डाघ लाइन को सीमा माना, मगर 1949 में नए-नए बने चीनी गणतंत्र ने इसे नहीं माना और अक्साई चिन को अचिन्हित करार दिया। 1962 की लड़ाई के दौरान चीन ने अक्साई चिन पर अवैध कब्जा कर लिया। वह अरुणाचल के 90 हजार वर्ग किमी के इलाके पर दावा करता है।

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