ब्लिट्ज ब्यूरो
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा है कि “क्या राज्यपाल को किसी कानून (विधेयक) को हमेशा के लिए रोके रखने की अनुमति दी जा सकती है? अगर हां, तो क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि एक निर्वाचित सरकार हमेशा राज्यपाल की व्यक्तिगत पसंद या इच्छा पर निर्भर रहेगी?” दरअसल, अदालत को चिंता है कि अगर राज्यपाल किसी विधेयक को हमेशा के लिए रोक सकते हैं, तो जनता द्वारा चुनी गई सरकार की शक्ति कमजोर हो जाएगी और राज्यपाल का व्यक्तिगत निर्णय बहुत मजबूत हो जाएगा।
मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से सवाल किया, “लेकिन तब क्या हम राज्यपाल को अपीलों पर सुनवाई करने का पूरा अधिकार नहीं दे रहे होंगे? बहुमत से चुनी गई सरकार राज्यपाल की इच्छा पर निर्भर हो जाएगी।” पीठ ने कहा कि अगर यह मान लिया जाए कि राज्यपाल द्वारा पहली बार रोकते ही कोई विधेयक ‘खत्म’ हो जाता है, तो यह न तो राज्यपाल की शक्ति के लिए ठीक होगा और न ही पूरी कानून बनाने की प्रक्रिया के लिए।
प्ाांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के उस संदर्भ पर सुनवाई कर रही है, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों द्वारा राज्य विधानसभाओं से भेजे गए विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए समय-सीमा तय करने संबंधी दो न्यायाधीशों की पीठ के फैसले को स्पष्टीकरण हेतु रखा गया है।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए.एस. चंदुरकर की पीठ को संबोधित करते हुए मेहता ने कहा कि राज्यपाल के पास चार विकल्प होते हैं—विधेयक को स्वीकृति देना, उसे रोकना, यदि वह किसी केंद्रीय कानून से टकराता है तो राष्ट्रपति को भेजना, या फिर पुनर्विचार हेतु राज्य विधानमंडल को लौटाना। मेहता के अनुसार स्वीकृति रोकना कोई अस्थायी प्रक्रिया नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय की पांच और सात न्यायाधीशों वाली पीठें पहले ही इसकी व्याख्या कर चुकी हैं कि इस स्थिति में विधेयक ‘अस्वीकृत’ माना जाएगा। मान लीजिए कोई सीमावर्ती राज्य विदेश मामलों से जुड़ा विधेयक पारित करता है और उसमें यह प्रावधान होता है कि हम किसी देश के लोगों को प्रवेश देंगे या नहीं। ऐसी स्थिति में राज्यपाउसे मंजूरी नहीं दे सकते, न ही राष्ट्रपति को भेज सकते।