नई दिल्ली। चीन ब्रह्मपुत्र नदी पर एक बड़ा बांध बना रहा है। इस बांध को लेकर जहां दुनिया भर के पर्यावरणविद् चिंता जता रहे हैं, तो वहीं भारत खुद इस बांध को लेकर टेंशन में है। भारत ने भी चीन को उसकी हैसियत बताने के लिए कमर कस ली है। भारत अब चीन की सीमा से सटे इलाकों तक एक रेल नेटवर्क बनाने जा रहा है। इससे हमारी सीमाएं सुरक्षित तो होंगी और दूसरी ओर चीन कभी पूर्वोत्तर की ओर आंख उठाने का दुस्साहस भी नहीं कर पाएगा।
तिब्बत की टीस और ब्रह्मपुत्र नदी
चीन ने अपने कब्जे वाले तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी पर दुनिया के सबसे बड़े बांध का निर्माण कार्य शुरू कर दिया है। चीन इस डैम को बनाने के लिए 167.8 बिलियन डॉलर खर्च करेगा। चीन इसलिए भी यहा बांध बना रहा है क्योंकि एक तो तिब्बत से भागकर आए दलाई लामा को भारत ने अरसे से शरण दे रखी है। चीन को भारत का तिब्बत के प्रति यह रवैया फूटी आंख भी नहीं सुहाता। यही वजह है कि वह तिब्बत पर अपना हक जताने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता।
ब्रह्मपुत्र का 80 फीसदी पानी तो हम देते हैं
ब्रह्मपुत्र नदी बेसिन का लगभग दो-तिहाई हिस्सा चीन-नियंत्रित तिब्बत में स्थित है, लेकिन ब्रह्मपुत्र नदी का 80% से अधिक जल भारत की देन है। वहीं, दूसरी ओर तिब्बत में सालाना केवल 300 मिमी बारिश होती है, जबकि पूर्वोत्तर भारत में सालाना 2,300 मिमी से अधिक बारिश होती है। कई भारतीय सहायक नदियां और बर्फ से लदी पर्वत चोटियां ब्रह्मपुत्र के प्रवाह को बढ़ाती हैं।
भारत-बांग्लादेश हो सकते हैं प्रभावित
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, कई विशेषज्ञों ने पहले भी इस बात पर चिंता जताई है कि चीन की तरफ से निर्मित यह बांध परियोजना भारत और बांग्लादेश में ब्रह्मपुत्र नदी और जमुना नदी में पानी के प्रवाह को काफी प्रभावित कर सकता है। यार्लंग जांगबो तिब्बत से निकलती है जो अरुणाचल प्रदेश के रास्ते भारत में प्रवेश करती है।
अरुणाचल में सियांग और असम में ब्रह्मपुत्र
ब्रह्मपुत्र को अरुणाचल प्रदेश में सियांग व दियांग नदी कहा जाता है। वहीं असम में यह ब्रह्मपुत्र नदी में बदल जाती है। बीच में कुछ और जल स्रोत इसमें मिल कर इसे विशाल रूप दे देते हैं। यह बांग्लादेश में जमुना नदी के नाम से जानी जाती है। चीन ने जिस बांध पर कार्य शुरू किया, उससे इसकी कुल बिजली उत्पादन क्षमता एक लाख मेगावाट हो सकती है।
 तिब्बत की टीस और बढ़ेगी
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत का मेगाप्लान यह है कि उसने 2030 तक पूर्वोत्तर के सभी सात राज्यों को रेल से देश के बाकी हिस्सों से जोड़ने का बड़ा लक्ष्य रखा है। इससे भारत की 22 किलोमीटर संकरा सिलीगुड़ी कॉरिडोर पर निर्भरता कम हो जाएगी। यह कॉरिडोर बहुत ज़रूरी है, लेकिन खतरे से भी भरा है। इसे ‘ चिकन नेक ‘ भी कहा जाता है।
चिकन नेक से निकलेगा बांग्लादेश का कांटा
सिलीगुड़ी कॉरिडोर नेपाल, भूटान और बांग्लादेश के बीच में है। यह भारत की मुख्य भूमि को पूर्वोत्तर से जोड़ने वाला एकमात्र रास्ता है। अभी, पूर्वोत्तर के चार राज्य असम, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम रेल से जुड़े हुए हैं। मिजोरम में बैराबी-सैरांग लाइन (51.38 कि.मी.) का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों होना है।  पूर्वोत्तर में रेलवे तेजी से बढ़ रहा है। ये परियोजनाएं न केवल बड़ी हैं, बल्कि इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को भी बदल सकती हैं।
पुल  कुतुबमीनार से ऊंचा
बैराबी-सैरांग रेल लाइन (52 कि.मी.) को बनाने में लगभग 8,000 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। इसमें 48 सुरंगें हैं, जिनकी कुल लंबाई 12.853 कि.मी. है। इसमें 55 बड़े और 87 छोटे पुल हैं। साथ ही, पांच रोड ओवरब्रिज और नौ रोड अंडरब्रिज भी हैं। एक पुल, जिसका नंबर 196 है, 104 मीटर ऊंचा है। यह कुतुब मीनार से 42 मीटर ऊंचा है।
चिकननेक की अहमियत हमारे लिए क्यों है
सिलीगुड़ी कॉरिडोर, जिसे ‘चिकन नेक’ कहा जाता है, भारत के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह नेपाल, भूटान और बांग्लादेश के बीच में है। इसका महत्व बहुत अधिक है। यह भारत के पूर्वोत्तर में रहने वाले लगभग 4.5 करोड़ लोगों के लिए जीवन रेखा है। यह सेना की रसद पहुंचाने का अहम रास्ता है और राष्ट्रीय एकता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। 
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