ब्लिट्ज ब्यूरो
मुंबई। बॉम्बे हाईकोर्ट ने अवैध रूप से एक सीनियर सिटिजन डॉक्टर और उनके (एनआरआई) बेटे का डीमैट अकाउंट फ्रीज करने पर बीएसई-एनएसई और सेबी पर 80 लाख रुपये का जुर्माना लगाया है। तीनों निकायों को मिलकर दो हफ्ते में जुर्माने की रकम भरनी होगी। बाप और बेटे की अलग-अलग याचिकाओं पर यह आदेश जारी किया गया है।
तय कानूनी आचरण के विपरीत काम किया
कोर्ट ने कहा है कि इन तीनों वैधानिक निकायों को कानूनी रूप से निवेशकों के हितों की रक्षा का जिम्मा सौंपा गया है, लेकिन मौजूदा मामले में बीएसई-एनएसई और सेबी ने तय कानूनी आचरण के विपरीत काम किया है। इन निकायों की ऐसी विवादित कार्रवाई से उन निवेशकों का विश्वास हिलने की संभावना है, जो अप्रवासी भारतीय है।
बीएसई के वकील का आग्रह अस्वीकार
कोर्ट ने इस मामले में सेबी और बीएसई के वकील द्वारा इस निर्णय पर रोक लगाने के आग्रह को भी अस्वीकार कर दिया।
यह है मामला
कोर्ट ने यह टिप्पणी 23 मार्च 2017 को डॉक्टर के डीमैट अकाउंट को बंद करने के आदेश को रद करते हुए की है। साथ ही अकाउंट फ्रीज करने के कदम को अवैध घोषित किया है। अकाउंट फ्रीज करने की कार्रवाई के खिलाफ डॉक्टर और उनके बेटे ने हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी।
1989 में कंपनी गठित की गई थी
दरअसल एक कंपनी द्वारा कथित रूप से सेबी के नियमों का पालन नहीं करने के लिए याचिकाकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई की गई थी। 1989 में यह कंपनी गठित की गई थी। यह कंपनी याचिकाकर्ता के ससुर की थी। जिसका उनका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कोई संबंध नहीं था। वे इस कंपनी के साधारण शेयर धारक थे। कंपनी ने तिमाही वित्तीय नतीजे समय पर नहीं जमा किए थे, इसलिए उसके खिलाफ कार्रवाई की गई थी।
विश्वास की रक्षा की जिम्मेदारी
बेंच ने कहा कि बीएसई-एनएसई और सेबी ने मौजूदा प्रकरण में जैसा आचरण दिखाया है, वैसे व्यवहार की उम्मीद उनसे नहीं की जा सकती है। इन तीनों संस्थाओं को हर संभव तरीके से निवेशकों की भावनाओं और विश्वास की रक्षा का दायित्व दिया गया है। वर्तमान मामले में हर तरीके से इस कर्तव्य की अनदेखी करने में कसर नहीं छोड़ी गई है, जबकि इस मामले में याचिकाकर्ता (डॉक्टर) का अकाउंट फ्रीज करने का कोई स्पष्ट कारण नहीं था।
‘न्याय के सिद्धांत को हवा में फेंका गया’
बेंच ने कहा कि हमारी राय में यह प्रकरण लापरवाही और मनमानी वाली कार्रवाई का आदर्श उदाहरण है, जो फैसला लेने से जुड़ी अथॉरिटी की विवेकहीनता को व्यक्त करता है। इस केस में नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत को जैसे हवा में फेंक दिया गया है। याचिकाकर्ता को अपनी बात रखने तक का उचित अवसर नहीं दिया गया।