दीपक द्विवेदी
बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार के विरोध में देशभर में ही नहीं, दुनिया के कई देशों में उबाल है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पश्चिम बंगाल और हिमाचल प्रदेश समेत कई राज्यों में जहां विरोध प्रदर्शन हुए, वहीं अमेरिका और जर्मनी तथा अन्य देशों में भी हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार को लेकर गहरा रोष व्यक्त किया गया है। बिजनौर में आयोजित सनातन धर्म सभा में तो संत समाज ने सरकार से हिंदुओं की रक्षा कर बांग्लादेश का भारत में फिर से विलय करने की भी मांग कर डाली। बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार और हिंदू संन्यासी चिन्मय कृष्ण दास की तत्काल रिहाई की मांग को लेकर पश्चिम बंगाल के कई इलाकों में प्रदर्शन हुए। कोलकाता, कांथी, काकद्वीप, संदेशखाली और पुरुलिया में हिंदूवादी समूहों की विरोध रैलियों में सैकड़ों लोग शामिल हुए। कोलकाता में बंगाली हिंदू सुरक्षा समिति ने सॉल्ट लेक इंटरनेशनल बस टर्मिनस पर प्रदर्शन करते हुए ढाकाई जामदानी साड़ियों को आग के हवाले कर दिया। प्रदर्शनकारियों ने बांग्लादेशी सामानों के बहिष्कार का आह्वान भी किया है। इस बीच बांग्लादेश में अल्पसंख्यक वर्ग ने जिस एकजुट ढंग से पलायन के बजाय विरोध का रास्ता अख्तियार किया है, वह वाकई काबिले तारीफ है। वहीं भारत के प्रमुख विश्वक्षी दलों की बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार के मुद्दे पर चुप्पी भी अखरने वाली है।
इधर भारत ने बांग्लादेश में हिंदुओं समेत अन्य अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर बार-बार गंभीर चिंता जताई है। विदेश सचिव विक्रम मिस्त्री ने बांग्लादेश के विदेश सचिव मोहम्मद जशीमुद्दीन से मुलाकात में अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक, धार्मिक स्थलों और उनकी संपत्तियों पर हमलों की घटनाओं का मुद्दा उठाया। मिस्त्री ने स्पष्ट किया कि भारत, बांग्लादेश के साथ सकारात्मक, रचनात्मक और दोनों, देशों को लाभ पहुंचाने वाले रिश्ते चाहता है। मिस्री 5 अगस्त को प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार पलटने वाले आंदोलन के बाद बांग्लादेश की यात्रा पर गए पहले आला अधिकारी हैं। अब देखना होगा कि मिस्री की इस यात्रा में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए क्या फैसला निकल कर सामने आता है। उल्लेखनीय है कि शेख हसीना के कार्यकाल में भारत के विश्वसनीय पड़ोसी रहे बांग्लादेश में हिंदुओं और अल्पसंख्यकों पर हमले तो छात्र आंदोलन के बहाने हुए तख्तापलट के बाद से ही हो रहे हैं पर अब जिस मध्ययुगीन तौर-तरीकों से वहां मंदिरों को नष्ट किए जाने और मूर्तियों को जलाए जाने की घटनाएं रोके नहीं रुक रहीं, वे वाकई बेहद चिंता उत्पन्न करने वाली हैं। बांग्लादेश की आजादी के बाद से वहां इस तरह की घटनाएं होती रही हैं किंतु इतने लंबे समय तक अस्थिरता रही हो, ऐसा 1971 के बाद से नहीं देखा गया है। बांग्लादेश सरकार का इन घटनाओं पर आंखें मूंदे रहना भी चौंकाने वाला है। पांच अगस्त को शेख हसीना के अपदस्थ होने के बाद पहले तीन सप्ताह में ही अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा की दो हजार से भी ज्यादा घटनाएं दर्ज की गईं थीं लेकिन हैरत की बात है कि अंतरिम सरकार के प्रमुख इसे गंभीर मुद्दा नहीं मान रहे हैं। दरअसल, मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार का रवैया पूरी तरह से भारत विरोधी है जो उनके फैसलों में भी दिखाई दे रहा है। भारत ने धर्मगुरु चिन्मयदास की गिरफ्तारी के मामले को निष्पक्षता से देखने की अपील की थी लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में बांग्लादेश की ओर से कहा गया कि यह उसका अंदरूनी मासला है।
वैसे बांग्लादेश में रह रहे हिंदू अल्पसंख्यकों और उनके पूजा स्थलों पर हमले को लेकर भारत सरकार की चिंता स्वाभाविक है। अंतरिम सरकार के मुखिया के रूप में नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस ने जब जिम्मेदारी संभाली थी तो ये उम्मीद बनी थी कि वहां स्थितियां नियंत्रण में आ जाएंगी मगर ऐसा होता अभी तक नजर नहीं आ रहा है। हालांकि हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमले का सिलसिला कोई नया नहीं है। शेख हसीना सरकार के समय भी वहां हिंदुओं और हिंदू पूजा स्थलों पर हमले होते थे पर उन्होंने उसे इस कदर फैलने से रोक दिया था। भारत और बांग्लादेश के बीच बहुत पुराने और सौहार्दपूर्ण संबंध रहे हैं। हालांकि विभाजन के बाद वहां से हिंदुओं को बाहर निकालने का बड़ा अभियान चला था मगर वह ऐसे कटु वातावरण में नहीं हुआ था जैसा अब देखा जा रहा है। अगर बांग्लादेश सरकार अपने नागरिकों के इस नफरती अभियान को रोकने में गंभीरता नहीं दिखाएगी तो दोनों देशों के रिश्तों पर और बुरा असर पड़ना तय माना जा रहा है। वैसे किसी भी लोकतांत्रिक सरकार से यह अपेक्षा की जाती है और यह उसका फर्ज भी है कि वह अपने यहां रह रहे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को हर तरह से संरक्षण प्रदान करे। भारत सरकार ने शेख हसीना को अपने यहां शरण दी तो वह उसका फर्ज था। अगर इसे लेकर वहां के आम लोगों में किसी तरह का रोष है और वहां रह रहे भारतीय मूल के लोगों या हिंदू धर्म को मानने वालों पर वह गुस्सा निकल रहा है तो उसे शांत करना भी वहां की सरकार की ही जिम्मेदारी है। ऐसी घटनाओं पर चुप्पी साध लेना किसी भी लोकतांत्रिक सरकार की निशानी नहीं कहा जा सकता। मोहम्मद यूनुस सुलझे हुए और लोकतांत्रिक मूल्यों के पैरोकार माने जाते हैं। अगर उनकी अगुआई वाली सरकार के वक्त में धार्मिक उन्माद पर काबू पाने में विफलता दिख रही है तो यह उनकी प्रशासनिक क्षमता पर भी गंभीर सवाल खड़े करता है। ऐसे में बांग्लादेश पर निरंतर नजर रखना अत्यंत जरूरी हो जाता है।