ब्लिट्ज ब्यूरो
आगरा। अंधाधुंध प्रयोग से औसतन 30 में से 28 एंटीबायोटिक दवाइयां बेअसर हो गई हैं। एसएन मेडिकल कॉलेज आगरा और केजीएमयू लखनऊ के संयुक्त अध्ययन में यह सामने आया है। केवल दो ड्रग अभी तक अच्छी तरह से काम कर रही हैं। कुल मिलाकर अब डॉक्टरों के पास इलाज करने के लिए एंटीबायोटिक दवाएं न के बराबर हैं।
एसएनएमसी के माइक्रोबायोलॉजी विभाग के अध्यक्ष डा. अंकुर गोयल, को-गाइड डा. प्रज्ञा शाक्य केजीएमयू लखनऊ के मेडिसिन विभाग के साथ मिलकर अध्ययन कर रहे हैं। एसएन में 522 मरीजों पर अध्ययन किया गया है। इसमें 10 से 70 साल के मरीज शामिल किए गए। मुख्यतः सर्जरी से पहले और बाद वाले, सड़क या किसी अन्य हादसे में घायल, पुरानी बीमारियों या संक्रमण से ग्रसित मरीजों को लिया गया।
जांच में ‘ग्राम नेगेटिव बैक्टीरियल इन्फेक्शन’ अधिक पाया गया। इनमें सर्वाधिक यूटीआई, सेप्सिस, घाव के संक्रमण और निमोनिया ज्यादा मिला। बैक्टीरिया की बात करें तो मरीजों में क्लेपसेला, ईकोलाई, एसीटोबैक्टर व सुडोनोमास अधिक पाए गए। मरीजों में से मिले बैक्टीरिया पर जब दवाओं का प्रयोग किया गया तो अधिकतर दवाएं फेल हो गईं। यानी दवाइयों में 20 से लेकर 90% तक का रेजिस्टेंस पाया गया। आम भाषा में बात करें तो दवाइयां नब्बे फीसदी तक बेअसर साबित हुईं। सिर्फ दो दवाइयां कारगर रहीं, जबकि तीन कुछ संक्रमण में काम आई तो कुछ में कम असरकारक सिद्ध हुईं।
इस तरह हुई जांच अध्ययन में मरीज के नमूनों से लिए गए बैक्टीरिया का प्रयोगशाला में ‘कल्चर एंड सेंसिटिविटी टेस्ट किया गया। इसमें बैक्टीरिया पर टेबलेट या इंजेक्शन से दवा डाली गई। देखा गया कि दवा से बैक्टीरिया मरता है, भागता है या नहीं। इसमें जितने प्रतिशत नाकामयाबी मिलती है, उतना ही ड्रग रेजिस्टेंट माना जाता है। बैक्टीरिया एक ही जगह पर जमा है तो समझिए दवा कारगर नहीं है।
कहां देनी चाहिए एंटीबायोटिक दवा
विशेषज्ञों के मुताबिक तीन तरह के संक्रमण होते हैं। इनमें पहला बैक्टीरियल, दूसरा वायरल, तीसरा फंगल संक्रमण होता है। सिर्फ बैक्टीरियल संक्रमण में ही एंटीबायोटिक दवाइयां देनी चाहिए लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं हो रहा। मोटे तौर पर 25 से 30 फीसदी वायरल और 10 से 15 फीसदी फंगल संक्रमण में भी डॉक्टर एंटीबायोटिक लिख देते हैं, जबकि उन्हें जरूरत नहीं है। इसे दवाओं का दुरुपयोग कहा जाएगा।
दुष्प्रयोग के बड़े कारण
झोलाछाप : हर बीमारी में मुख्य दवाइयों के साथ एंटीबायोटिक देते हैं। मरीज को जल्दी ठीक करने के लिए ऐसा करते हैं।
ओटीसी बिक्री : 2 ओवर द काउंटर, यानी सीधे कैमिस्ट से खरीदना। कमीशन के चक्क र में कैमिस्ट भी एंटीबायोटिक देते हैं।
बाजार में तमाम एंटीबायोटिक दवाएं मौजूद हैं, खराब या कम गुणवत्ता वाली दवाइयां भी रेजिस्टेंस बढ़ाती हैं।
अस्पतालों में बैक्टीरियल संक्रमण से बचाव के अच्छे साधन नहीं हैं। इससे दवाइयों का प्रयोग बढ़ता है।
कल्चर जांच : कल्चर जांच बिना डॉक्टर दवाएं लिख देते हैं। इसी जांच से एंटीबायोटिक की जरूरत पता चलती है।
इन कारणों से हुई निष्प्रभावी
अंधाधुंध प्रयोग दवाइयों का अधिक प्रयोग करने से बैक्टीरिया की ताकत बढ़ जाती है, दवाएं बेअसर होने लगती है।
अंडर डोज: किसी मरीज को अधिक खुराक की जरूरत है पर उसे कम खुराक वाली खिलाई जाती है।
एंटीबायोटिक दवाओं का अंधाधुंध उपयोग रोकने के लिए गाइडलाइन बनाए जाने की जरूरत है। एसएनएमसी समेत प्रदेश के कई मेडिकल कालेजों में एंटीबायोटिक पॉलिसी बनाई गई है। इसे पूरी तरह लागू करना होगा। वरना इलाज का भविष्य बहुत अच्छा नहीं दिखता।
असरहीन ड्रग और प्रतिशत
एमोक्सीसिलिन- 90%
पेनसिलिन- 80%
सेक्ट्रायेक जोन- 70%
सिप्रोफ्लोक्सासिन- 70%
सेप्टा जाइम- 65%
लियो फलाक्सासिन- 60%
सिफिकजीम- 55%
इरिब्रोमाइसिन- 50%
एम कासिम- 40%
मेरोपेनम- 35%
असरकारक ड्रग और प्रतिशत
कोलिस्टिन- 100%
टाइजी साइकिलीन- 100%
क्लोरेम फेनिकोल- 50%
कोद्रेमोकजाल- 50%
मीनीसाइक्लिन- 50%































