ब्लिट्ज ब्यूरो
नई दिल्ली। जलवायु परिवर्तन की भयावहता अब कृषि क्षेत्र को भी सीधे प्रभावित करने लगी है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने हाल ही में अपनी भू-स्थानिक तकनीकी प्रणाली एबीसी-मैप में एक महत्वपूर्ण संकेतक जोड़ा है जो बताता है कि सदी के अंत तक गेहूं, कॉफी, बीन्स जैसी अहम फसलों की खेती के लिए उपयुक्त उपजाऊ जमीन नष्ट हो सकती है।
नया संकेतक अध्ययन पर आधारित है, जिसे फ्रेंच स्टार्टअप फिनरेस ने इंटरनेशनल फंड फॉर एग्रीकल्चरल डेवलपमेंट (आईएफएडी) के लिए तैयार किया है। इसमें पाया गया है कि गेहूं, कॉफी, बीन्स, कसावा और प्लांटेन जैसी नौ में से पांच प्रमुख फसलें पहले ही अपनी खेती योग्य उपजाऊ जमीन खोने लगी हैं और सदी के अंत तक इनमें से कुछ फसलों की लगभग आधी जमीन नष्ट हो जाएगी। कॉफी और गेहूं जैसी फसलें विशेष रूप से प्रभावित होंगी। वहीं बीन्स और गेहूं की उपज यूरोप और उत्तर अमेरिका जैसे क्षेत्रों में बुरी तरह घट सकती है। इसके उलट मक्क ा और चावल जैसी कुछ फसलें शुरुआती वर्षों में कुछ नए क्षेत्र पा सकती हैं, लेकिन अगर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन तेजी से जारी रहा तो उनका भी भविष्य संकट में पड़ सकता है।
फसलों की अनुकूलता का वैज्ञानिक आकलन
अध्ययन में नौ प्रमुख फसलों की वर्तमान और भविष्य की खेती योग्य भूमि का मूल्यांकन किया गया है। अध्ययन में बताया गया है कि इनमें से पांच फसलें पहले ही अपनी उपयुक्त जमीन खो रही हैं और यह सिलसिला यदि जारी रहा तो भूख और खाद्य संकट जैसी स्थितियों की आशंका और गहरा सकती है। सदी के अंत तक खेती योग्य भूमि के नष्ट होने के कई कारण हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान बढ़ रहा है, वर्षा के पैटर्न बदल रहे हैं और सूखे और बाढ़ जैसे चरम मौसम की घटनाएं बढ़ रही हैं, जिससे खेती योग्य भूमि को नुकसान हो रहा है। मृदा अपरदन (सोइल इरोजन) से भी खेती योग्य भूमि नष्ट हो जाती है।
सरकारी नीतियों के लिए मार्गदर्शक एबीसी-मैप
एबीसी-मैप एक सैटेलाइट आधारित भू-स्थानिक एप है जो नीति-निर्माताओं, वैज्ञानिकों और कृषि योजनाकारों को जलवायु, जैव विविधता और कार्बन उत्सर्जन जैसे पहलुओं का मूल्यांकन करने में मदद करता है। एफएओ के जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञ मार्शल बर्नौक्स के अनुसार यह नया संकेतक भविष्य की कृषि नीति बनाने में सरकारों और संस्थाओं के लिए एक महत्वपूर्ण आधार बन सकता है। जब मौसम का मिजाज तेजी से और अनिश्चित तरीके से बदल रहा है तो किसानों और नीति-निर्माताओं को यह जानना अत्यंत आवश्यक हो गया है कि किन फसलों को बदलते मौसम में बनाए रखना व्यावहारिक होगा।