ब्लिट्ज ब्यूरो
नई दिल्ली । दुनिया में अपने बढ़ते प्रभाव के साथ भारत अब ग्लोबल फाइनेंशियल सिस्टम को बदलने के लिए एक ठोस और निर्णायक कदम उठा रहा है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की अगुवाई में भारत की मुहिम सिर्फ कूटनीतिक बयान नहीं बल्कि एक गंभीर आर्थिक जरूरत है, जो ‘विकसित भारत 2047’ के विजन से सीधे जुड़ी हुई है।
भारत की नजर दो बड़े ग्लोबल इकोनॉमिक पिलर्स पर है- ब्रेस्टन वुड्स इंस्टीट्यूशंस (आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक) और “बिग थ्री” क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां, एसएंडपी, मूडीज, फिच हैं । भारत मानता है कि 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने की राह इन्हीं संस्थाओं से होकर जाती है और अब वक्त आ गया है कि इनके नियम बदले जाएं।
भारत का मुख्य तर्क यह है कि मौजूदा सिस्टम पुराना हो चुका है- वो एक ऐसे दौर में बना था जब भारत गरीब और कमजोर था लेकिन आज भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी और सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है, फिर भी उसे एक ऐसे फाइनेंशियल सिस्टम में बांध कर रखा गया है जो उसकी आर्थिक ताकत को नजरअंदाज करता है और कहीं न कहीं उसे सजा देता है।
सबसे बड़ा उदाहरण हैं क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की “अनुचित नजर”। मजबूत मैक्रोइकनॉमिक्स, राजनीतिक स्थिरता और तेजी से बढ़ते मार्केट के बावजूद, ये एजेंसियां भारत को निवेश के लिए सबसे निचले ग्रेड में बनाए हुए हैं। यह सिर्फ प्रतिष्ठा की बात नहीं है।
इस रेटिंग का सीधा असर भारत सरकार और निजी कंपनियों की उधारी लागत पर पड़ता है। “परसेप्शन प्रीमियम” यानी सिर्फ गलत धारणा के कारण भारत को हर साल अरबों डॉलर ज्यादा चुकाने पड़ते हैं जो हाईवे, पोर्ट, ग्रीन एनर्जी, आरएंडडी, हेल्थ और एजुकेशन जैसे विकास कार्यों में लग सकते थे।
भारत की रणनीति साफ है। आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक में वह कोटा और वोटिंग सिस्टम में बदलाव चाहता है। भारत कहता है कि किसी भी देश की ग्लोबल इकनॉमिक फैसलों में हिस्सेदारी उसकी असली जीडीपी के मुताबिक होनी चाहिए। इसके साथ-साथ भारत उस पुराने नियम को भी खत्म करना चाहता है जिसमें वर्ल्ड बैंक का अध्यक्ष हमेशा अमेरिका से और आईएमएफ का यूरोप से चुना जाता है। भारत इसके बदले एक खुली और मेरिट-बेस्ड चयन प्रक्रिया की मांग कर रहा है।
साथ ही, भारत जी20 के जरिए “बिगर, बेटर और बोल्डर” मल्टीलेटरल डेवलपमेंट बैंकों (एमडीबी’ज) की मांग कर रहा है- ताकि ये संस्थाएं अपनी पूंजी का बेहतर इस्तेमाल करके क्लाइमेट और इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे बड़े क्षेत्रों में ज्यादा लोन दे सकें।
दूसरे मोर्चे पर, भारत क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की पारदर्शिता और ऑब्जेक्टिविटी पर सवाल उठा रहा है। खासकर ‘सावरेन सीलिंग’ पॉलिसी पर जिसमें देश की रेटिंग के आधार पर वहां की प्राइवेट कंपनियों की रेटिंग को सीमित कर दिया जाता है, चाहे वो कितनी भी मजबूत क्यों न हों। इससे भारत की ग्लोबल कंपनियों को फेयर रेट पर फंड मिलना मुश्किल हो जाता है।
भारत को पता है कि सिर्फ मांग करने से कुछ नहीं होगा। इसलिए उसने दोहरी रणनीति अपनाई है। एक तरफ वो जी20 जैसे प्लेटफॉर्म्स पर अपनी बढ़ती डिप्लोमैटिक ताकत का इस्तेमाल करके ग्लोबल साउथ के देशों को एकजुट कर रहा है। जी20 में भारत की प्रेसिडेंसी और ‘नई दिल्ली लीडर्स डिक्लेरेशन’ इसका बड़ा उदाहरण है।
दूसरी तरफ, भारत समानांतर संस्थाएं बना रहा है। ब्रिक्स का न्यू डेवलपमेंट बैंक (एनडीबी) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है- जिसमें सभी संस्थापक देशों को बराबर वोटिंग राइट्स हैं और लोन लोकल करेंसी में दिया जाता है। यह एक नया, ज्यादा न्यायसंगत मॉडल पेश करता है जो सिर्फ सपना नहीं, बल्कि हकीकत है।
भारत का यह अंतरराष्ट्रीय अभियान उसी के घरेलू सुधारों का एक्सटेंशन है। ‘विकसित भारत’ की नींव घरेलू ऊर्जा और वैश्विक सपोर्ट पर टिकी है। भारत अपने यहां मैन्युफैक्चरिंग बढ़ा रहा है, इनोवेशन को प्रोत्साहित कर रहा है, और बिजनेस को आसान बना रहा है लेकिन अगर ग्लोबल फाइनेंशियल सिस्टम फेयर न हो, तो ये सारे प्रयास कमजोर पड़ सकते हैं। भारत को 2047 तक 30 ट्रिलियन डालर की इकॉनमी बनना है और इसके लिए सस्ते, फेयर इंटरनेशनल फंडिंग की ज़रूरत है। रास्ता मुश्किल है। जी7 देश बातें तो करते हैं, लेकिन अपनी वोटिंग ताकत छोड़ने को तैयार नहीं हैं। फिर भी आज का वक्त खास है- महामारी, क्लाइमेट क्राइसिस, कर्ज संकट ने ग्लोबल साउथ को एक नई ताकत दी है।
भारत की ये मुहिम सिर्फ अपने लिए नहीं है
ये एक न्यायपूर्ण और स्थिर दुनिया के लिए है। ये एक संदेश है 2047 की ओर बढ़ते भारत को अब कोई बाहर से बनाए गए नियम नहीं थोप सकता। अब भारत खुद नियम बनाएगा और एक ऐसा फाइनेंशियल सिस्टम खड़ा करेगा, जो उसके विजन जितना ही बड़ा और महत्वाकांक्षी होगा।































