दीपक द्विवेदी
‘ऐसे मैकेनिज्म की जरूरत है जो न तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अनुचित रूप से बाधित करे, न ही नैतिकता, शालीनता के मानकों को गिरने दे।’
अभिव्यक्ति में आजादी के नाम पर भाषणों अथवा कार्यक्रमों में अश्लील और अभद्र संभाषण हमेशा से चर्चा का विषय बनता रहा है। इसको लेकर अनेक सरकारों में विचार मंथन तो हुआ किंतु इस पर अंकुश के लिए कभी ठोस कदम नहीं उठाए गए। चुनावों के दौरान एक-दूसरे के प्रति अभद्र संभाषण तो आम बात है ही; अब तो फिल्मों और टेलीविजन धारावाहिकों में भी गाली-गलौज एवं अश्लील शब्दों तथा चल-चित्रण का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है जिस पर कोई अंकुश लगाने वाला नजर नहीं आ रहा। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि अनेक बार ऐसे दृश्य अथवा संवाद आ जाते हैं जिन्हें आप परिवार के साथ बैठे हों तो सुन अथवा देख भी नहीं सकते। अभिव्यक्ति में अश्लीलता का मुद्दा हाल-फिलहाल इसलिए गरमाया हुआ है क्योंकि एक यूट्यूबर और पॉडकास्टर रणवीर अल्लाहबादिया ने अपने एक कार्यक्रम में ऐसी अभद्र टिप्पणी की जिसको लेकर देशभर में तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने रणवीर अल्लाहबादिया को कड़ी फटकार लगाई और सरकार को भी नसीहत दी। कोर्ट ने रणवीर के शो को टेलिकास्ट की इजाजत तो दे दी लेकिन यह भी कहा कि प्रोग्राम में नैतिकता, शालीनता के सभी मानदंडों का पालन हो और यह सभी उम्र के दर्शकों के लिए ठीक हो।
शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि सिर्फ व्यावसायिक लाभ के लिए किसी को कुछ भी बोलने की छूट नहीं दी जा सकती। कॉमेडी ऐसी होनी चाहिए जो पूरा परिवार एक साथ बैठकर देख सके न कि ऐसी जिसमें कोई शर्मिंदगी महसूस करे। अश्लील भाषा का इस्तेमाल कोई प्रतिभा नहीं है। भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट की इस राय पर सहमति जताई। जस्टिस सूर्यकांत ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर लिखे जा रहे लेखों पर भी असंतोष जताया और कहा, ‘हम जानते हैं कि कुछ लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर लेख लिख रहे हैं। हमें पता है कि उन्हें कैसे संभालना है। इस देश में मौलिक अधिकार किसी को थाली में परोसकर नहीं मिलते। हर अधिकार के साथ एक कर्तव्य भी होता है। अगर कोई मौलिक अधिकारों का आनंद उठाना चाहता है, तो यह देश उसकी गारंटी देता है लेकिन उस गारंटी के साथ कर्तव्य भी निभाने होंगे।’ कोर्ट ने उन आरोपियों पर नाराजगी जताई, जिन्होंने विदेश में इस मामले पर मजाक किया था। कोर्ट ने कहा, ‘ये युवा बहुत ज्यादा होशियार बनने की कोशिश कर रहे हैं। शायद उन्हें लगता है कि हम पुरानी पीढ़ी के हैं। इनमें से एक कनाडा में जाकर इस मामले पर बोल रहा था। उन्हें शायद यह पता नहीं कि इस अदालत का अधिकार क्षेत्र कितना व्यापक है और हम क्या कर सकते हैं? हम जानते हैं कि उन्हें कैसे संभालना है? अदालत को हल्के में न लिया जाए।’
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एन. कोटिस्वर सिंह की बेंच के समक्ष केंद्र सरकार और महाराष्ट्र, असम और ओडिशा की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि इंडिया गॉट लेटेंट शो में की गई टिप्पणियां अश्लील ही नहीं, बल्कि विकृत मानसिकता की भी प्रतीक थीं। बेंच ने कहा कि सरकार को ऑनलाइन कंटेंट पर नियंत्रण के लिए रेगुलेटरी फ्रेमवर्क बनाने चाहिए। कोर्ट ने यह भी निर्देश दिए हैं कि मौलिक अधिकारों के साथ कर्तव्यों का पालन भी जरूरी है। कोर्ट ने कहा कि ऑनलाइन कंटेंट को रेगुलेट करना इसलिए भी जरूरी है ताकि मौलिक अधिकारों और नैतिकता के बीच संतुलन बना रहे। दरअसल अश्लीलता क्या है? अभिव्यक्ति की आजादी क्या है? सुप्रीम कोर्ट ने अश्लीलता के मामले की सुनवाई करते हुए अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के साथ-साथ सेंसरशिप के प्रति अपनी अनिच्छा को दोहराया लेकिन यह भी कहा कि ऐसा विचार ‘घटिया विचारों’ और ‘गंदी बातों’ का लाइसेंस नहीं है। अश्लीलता एक आपराधिक कृत्य है। फिर भी, इसे परिभाषित करना असंभव है। यही कारण है कि यह तय करना एक निरंतर संघर्ष है कि ‘अश्लील’ मानी जाने वाली बातें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को कम करती हैं या नहीं।
बीते दिनों में सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की आजादी व धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने से जुड़े मामलों में जो फैसले किए हैं और इस दौरान जो टिप्पणियां की हैं, उसके निहितार्थों को समझने की आवश्यकता है। ‘मियां-टियां’ और ‘पाकिस्तानी शब्दों के इस्तेमाल से जुड़ी याचिका की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति बोधी वागराला और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने इस मुकदमे के आरोपी को इस आधार पर आरोप-मुक्त कर दिया कि यह आईपीसी की धारा 298 के तहत धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के अपराध के बराबर नहीं है। वैसे, अदालत ने इन शब्दों के प्रयोग को गैर-मुनासिब माना।
कानून की बात करें तो पहले आईपीसी की धाराएं 292-294 और अब बीएनएस की धाराएं 294 और 296, अश्लीलता को विशेषणों में परिभाषित करती हैं जो भी कामुक, प्रतिकूल, गंदी, आपत्तिजनक हो, वह सब अश्लील है। शब्दकोश में भी कहा गया है- वह जो ‘नैतिक रूप से आपत्तिजनक’ है। यह कार्य, कृत्य, हावभाव, भाषण हो सकते हैं। छूट में धार्मिक व्यवहार शामिल है। ऐसे क्षेत्र को नियंत्रित करने वाले किसी भी कानून की कोई कठोर सीमा नहीं हो सकती है। इस प्रकार अदालतों, न्यायाधीशों और पुलिस की व्याख्या परिणाम तय करने में एक प्रमुख भूमिका निभाती है। निष्कर्ष तौर पर ऐसे मैकेनिज्म की जरूरत है जो न तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अनुचित रूप से बाधित करे और न ही नैतिकता, शालीनता के मानकों को गिरने दे। जब तक अश्लीलता को समुचित ढंग से परिभाषित नहीं किया जाता, तब तक शब्दों का प्रयोग करने वाले को ही सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप ही व्यवहार व वाचन करना श्रेयस्कर है।