दीपक द्विवेदी
देरी से मिला न्याय, अन्याय के समतुल्य होता है। कानून में सस्ते, सुलभ और शीघ्र न्याय की लंबी चौड़ी बातें तो अवश्य होती हैं लेकिन आम जनता को शीघ्र एवं सस्ता न्याय आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाता है। चाहे हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट हो या फिर जिला न्यायालय। हर जगह प्राय: तारीख पर तारीख ही मिलती है और न्याय की चाह में आमलोग भटकते रहते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि देरी से मिला न्याय, न्याय नहीं होता। जहां तक न्याय का सवाल है, तो अदालत के सामने दोनों पक्ष बराबर होते हैं। लोगों को जल्दी न्याय मिलेगा तो अदालतों में केसों की पेंडेंसी कम होगी और आम जनता का विश्वास व्यवस्था में और मजबूत होगा। यदि हम इसका भावार्थ समझें तो इसका यही अर्थ है कि यदि किसी को न्याय मिल जाता है किन्तु इसमें बहुत अधिक देरी हो गई हो तो ऐसे ‘न्याय’ की कोई सार्थकता नहीं होती। इसके अलावा वकीलों की मोटी फीस भी सस्ते और शीघ्र न्याय के मार्ग में एक बहुत बड़ा रोड़ा है जिसके विनियमन के लिए भी कड़े उपाय किए जाने की जरूरत है। दरअसल देरी से मिला न्याय, अन्याय के ही समतुल्य होता है; यह सिद्धान्त ही ‘द्रुत गति से न्याय के अधिकार’ का आधार है। यह मुहावरा न्यायिक सुधार के समर्थकों का मूल आधार भी है जिसके सबसे पहले प्रयोग का श्रेय संभवत: विलियम इवर्ट ग्लैडस्टोन को दिया जाता जिन्होंने 16 मार्च 1868 को ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ की बहस के दौरान इस वाक्यांश का उल्लेख किया था। हालांकि इस वाक्यांश के पहले भी प्रयोग के उल्लेख मौजूद हैं।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की 75 वीं वर्षगांठ पर आयोजित न्यायपालिका के राष्ट्रीय सम्मेलन के समापन समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी कहा था कि जब रेप जैसे मामलों में तत्काल न्याय नहीं मिलता और कोर्ट का फैसला एक पीढ़ी गुजर जाने के बाद आता है, तो आम आदमी को लगता है कि न्याय की प्रक्रिया में कोई संवेदनशीलता नहीं बची है। ऐसे में लोगों का भरोसा उठ जाता है। इसलिए अदालतों में त्वरित न्याय सुनिश्चित करना जरूरी है। इस तरह राष्ट्रपति ने आम आदमी की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है। उनके इस भाषण को अगर अजमेर की घटना से जोड़ दें तो स्थिति उससे भी भयावह दिखती है। अजमेर में करीब 34 वर्ष पूर्व 100 से अधिक स्कूली छात्राओं से ब्लैकमेल कर दुष्कर्म किया जाता रहा था। 32 वर्ष बाद, अभी एक माह पूर्व उसका फैसला आया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ने कहा है कि महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के मामलों में जितनी तेजी से न्याय मिलेगा, उतनी जल्दी आधी आबादी को सुरक्षा का भरोसा मिलेगा।
वस्तुत: न्याय में देरी के कई कारण हो सकते हैं पर व्यवस्था ऐसी बनाई जानी चाहिए जिसमें मुकदमों से जुड़ा कोई भी पक्ष नियमों और प्रक्रिया तथा उच्च अदालतों में अपील के नाम पर व्यर्थ में सिर्फ विलंब करने के मौके न पा सके। आज देश की अदालतों में लाखों मामले लंबित पड़े हैं। राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड (एनजेडीजी) की हालिया रिपोर्ट का यह खुलासा आश्चर्य में डालने वाला है कि देश के उच्च न्यायालयों में लंबित 58 लाख से अधिक मामलों में से करीब 62 हजार मामले गत 30 वर्षों से लंबित हैं। यह न केवल हमारी न्यायिक प्रणाली की धीमी गति की दर्शाता है बल्कि न्याय के समय से न मिलने से नागरिकों को हो रही मुश्किलों को भी दर्शाता है। यदि सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों सहित विभिन्न अदालतों में कुल लंबित मामलों को देखें तो यह समस्या और बड़ी नजर आती है जहां 5 करोड़ से अधिक केस विचाराधीन हैं।
वैसे तो उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि का लंबित मामलों को कम करने में प्रभाव सीमित ही दिखाई दिया है पर वर्ष 2009 में शीर्ष अदालत में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या बढ़ाने के बावजूद लंबित मामलों की संख्या बढ़ी ही है जो अब 83 हजार मामलों के अपने सर्वोच्च स्तर तक पहुंच चुकी है। इसके अतिरिक्त, लंबित मामलों का एक विश्लेषण यह भी बताता है कि ऐसे 25 से 30 फीसदी मामले तुरंत बंद किए जा सकते हैं, जिनमें शामिल पक्ष या तो मौजूद नहीं है, या फिर वे इन मामलों को आगे बढ़ाने में रुचि नहीं रखते। न्याय में देरी को दूर करने के लिए केंद्र व राज्य सरकारें भी प्रयास रही हैं। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ ने भी लंबित मामलों की संख्या कम करने के लिए तीन चरणों की योजना बनाई है।
सीजेआई ने जिला न्यायपालिका के राष्ट्रीय सम्मेलन में न्यायिक भर्ती प्रक्रिया में सुधार के लिए राष्ट्रीय स्तर की रणनीति की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश डाला था और जिला न्यायपालिका के लिए राष्ट्रीय स्तर पर न्यायाधीशों की भर्ती का आह्वान किया था ताकि योग्य न्यायाधीश मिल सकें जो स्मार्ट तरीके से मुकदमों का बोझ कम कर सकें क्योंकि न्यायिक बुनियादी ढांचे में विकास का लंबित मामलों को कम करने की क्षमता पर सीधा प्रभाव पड़ता है। सीजेआई मानते हैं कि न्याय प्रदान करना एक आवश्यक सेवा है। उन्होंने कहा कि हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए कि न्यायालयों तक आमजन की पहुंच बढ़े ताकि शीघ्र न्याय सुलभ हो सके। इसके लिए हमें तारीख पर तारीख की संस्कृति और मानसिकता को भी बदलना होगा।