विनोद शील
नई दिल्ली। महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों के नतीजे इस बार भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के लिए ऐतिहासिक और अभूतपूर्व रहे। इन चुनाव नतीजों से निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी और मजबूत हुए हैं; इसमें कोई दो राय नहीं। महाराष्ट्र में बीजेपी की लहर नहीं ऐसी सुनामी चली जो उन सारे पूर्वानुमानों को बहा ले गई जिनमें महायुति के सत्ता से बाहर होने की बात कही गई थी।
महाराष्ट्र में इतनी बड़ी जीत की उम्मीद शायद बीजेपी समेत महायुति के समर्थकों को भी नहीं रही होगी। महाराष्ट्र में बीजेपी के लिए आए कल्पनातीत और अनपेक्षित परिणामों ने बीजेपी के सहयोगी दलों; शिंदे सेना और अजित पवार गंगाधर दोबले की एनसीपी की नैया भी पार लगा दी। कांग्रेस के नेतृत्व में उद्धव सेना और शरद पवार की एनसीपी की महाविकास अघाड़ी चारों खाने चित हो गई। राज ठाकरे की एमएनएस, प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी, बच्चू कडू की तीसरी अघाड़ी शून्य के साथ अस्तित्व के संकट में आ गई।
इसके पूर्व भी हरियाणा में पिछले दस सालों से बीजेपी सरकार थी और लगातार तीसरी बार भी उसे जीत मिली। 10 सालों की सत्ता विरोधी लहर और राज्य में चल रहे कई सरकार विरोधी आंदोलनों के बावजूद बीजेपी वहां तीसरी बार सत्ता में आई। विश्लेषकों का ऐसा मानना था कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बहुमत नहीं मिलने से विपक्ष मज़बूत होगा लेकिन उसके बाद हुए चुनावों में विपक्ष ऐसा कुछ कर नहीं पाया। अगर विपक्षी पार्टियां हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनाव जीततीं तो केंद्र की मोदी सरकार पर जरूर असर पड़ सकता था और एनडीए के भीतर भी बीजेपी का दखल कम होता।
मोदी का कद और बढ़ा
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी ने मोदी की लोकप्रियता और नीतियों के अाधार पर ही चुनाव लड़ा था। यहां बीजेपी की सरकार बनने का मतलब इसे मोदी की ही जीत ही समझा जाएगा। ऐसे में बीजेपी के भीतर और बाहर पीएम मोदी का कद और स्थायी हो गया है जबकि लोकसभा चुनाव के बाद उनका प्रभाव क्षेत्र कमज़ोर पड़ने की बात कही जा रही थी।
कांग्रेस के लिए महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव नतीजे बहुत निराशाजनक हैं क्योंकि लोकसभा चुनाव में 99 सीटें जीतने के बाद पार्टी को जो नई ऊर्जा मिली थी, उसमें अब ठहराव की स्थिति आ गई है। ऐसे में पार्टी को भविष्य की रणनीति पर फिर से विचार करना होगा और लोग नेतृत्व पर भी सवाल उठाएंगे ही। दूसरी ओर महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी को लगे झटके से एक बार फिर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व और ख़ासकर राहुल गांधी पर सवाल उठने की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। वैसे भी पूर्व उनकी नेतृत्व क्षमता को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। यद्यपि महाराष्ट्र चुनाव सभी पार्टियों ने मिलकर लड़ा है तो किसी एक के सिर ठीकरा फोड़ना भी मुश्किल होगा पर कहीं न कहीं कांग्रेस के अस्तित्व और नीतियां तो सवालों के दायरे में आएंगी ही; ऐसा माना जा रहा है।
अब दिल्ली में फिर अग्नि परीक्षा
ढाई महीने बाद ही दिल्ली में भी विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। फरवरी 2025 में होने जा रहे इस चुनाव में तीन मुख्य पार्टियां मैदान में हैं।
उ ल्लेखनीय है कि हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन नहीं हो सका था और दिल्ली में भी ये गठबंधन नहीं होने जा रहा है। महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजे का असर दिल्ली विधानसभा चुनाव पर पड़ सकता है। हालांकि दिल्ली में आम आदमी पार्टी मज़बूत है और बाक़ी राज्यों से इसकी तुलना नहीं की जा सकती है।
हिन्दुत्व की राजनीति का दिखा असर
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान ही ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ नारा ख़ूब उछला जिसकी ख़ासी चर्चा रही। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस नारे को महाराष्ट्र विधानसभा में चुनाव प्रचार के दौरान ख़ूब इस्तेमाल किया था। ऐसा माना गया कि यह नारा हिंदू समुदाय की अलग-अलग जातियों को एक करने के लिए था। इस नारे पर जब विवाद पैदा हुआ तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान ही ‘एक हैं तो सेफ़ हैं’ का नारा लेकर आए। इस नारे को भी हिंदू समुदाय को एकजुट करने के लिहाज़ से ही देखा गया। बीजेपी ने महाराष्ट्र चुनाव के दौरान पूरी कोशिश की कि ये चुनाव जाति के आधार पर न बंटें। वहीं झारखंड में चुनाव के दौरान बीजेपी ने कथित बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा ज़ोर-शोर से उठाया था पर वहां उसे मनचाही सफलता नहीं मिल सकी। इन नतीजों का राज्य और देश की राजनीति पर भी असर होगा। पहला, इन दोनों अलायंस से बाहर जो दल हैं, वे हाशिये पर चले गए हैं। इसका संकेत पिछले लोकसभा चुनाव और उसके बाद के चुनावों में मिला था। यह देखना अभी बाकी है कि दोनों में से कौन सी शिवसेना बाला साहेब ठाकरे की विरासत को आगे बढ़ा पाती है। राज ठाकरे की एमएनएस तो पहले से हाशिये पर है, उद्धव धड़े का स्ट्राइक रेट पिछले लोकसभा चुनावों में भी खराब रहा था। उधर, अजित पवार धड़े के अच्छे प्रदर्शन के बाद इसे लेकर कई संभावनाएं बन गई हैं। देखना होगा कि क्या परिवार के दोनों धड़ों के बीच कोई समझौता होता है? पिछले लोकसभा चुनाव में कुछ बेहतर प्रदर्शन के बाद कांग्रेस फिर से राष्ट्रीय स्तर पर बुरी स्थिति में पहुंच चुकी है। झारखंड में एलएनडीएलए ब्लॉक की जीत में भी इसकी भूमिका अहम नहीं रही है। न ही कुछ महीने पहले जम्मू-कश्मीर में हुए चुनावों में अलायंस की जीत में उसकी कोई बड़ी भूमिका थी। पहले हरियाणा और उसके बाद अब महाराष्ट्र में हार के बाद लगता है कि कांग्रेस आज भी चुनौतियों से जूझ रही है।
किसका ‘स्ट्राइक रेट’ कितना
कांग्रेस के नेतृत्व में उद्धव सेना और शरद पवार की एनसीपी की महाविकास अघाड़ी चारों खाने चित हो गईं। राज ठाकरे की एमएनएस, प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी, बच्चू कडू की तीसरी अघाड़ी शून्य के साथ अस्तित्व के संकट में आ गई। बीजेपी की चमत्कारिक जीत का अंदाजा उसके स्ट्राइक रेट से ही लग जाता है। उसने 148 सीटों पर चुनाव लड़ा और 132 सीटों पर जीत हासिल की।
– मोदी की नीतियों पर लड़ा चुनाव
– कांग्रेस के लिए चुनाव नतीजे निराशाजनक
स्ट्राइक रेट रहा 89 प्रतिशत, इतना स्ट्राइक रेट शायद ही किसी पार्टी ने अब तक पाया होगा। शिंदे सेना के भी मजे रहे। यह 81 सीटों पर चुनाव लड़ी और 57 पर विजय पाई। इसका स्ट्राइक रेट रहा 70 प्रतिशत। अजित पवार की एनसीपी का स्ट्राइक रेट तो शिंदे सेना से भी अधिक 75 प्रतिशत के करीब है। वह 55 सीटों पर लड़ी और 41 जीतीं। दूसरी ओर विपक्ष में कांग्रेस का स्ट्राइक रेट 16 प्रतिशत है, जिसने 101 सीटों पर लड़कर 16 ही जीतीं। उद्धव सेना ने 95 सीटें लड़कर 20 जीतीं और स्ट्राइक रेट रहा 21 प्रतिशत। शरद पवार की एनसीपी का स्ट्राइक रेट सबसे कम 12 प्रतिशत ही है। उसने 87 सीटों पर चुनाव लड़ा और हाथ लगीं केवल 10 सीटें। सबसे अधिक चोट शरद पवार की एनसीपी को पड़ी जिससे उबरने की निकट भविष्य में संभावना तक दिखाई नहीं देती। शरद पवार का इस तरह हाशिए पर आ जाना महाराष्ट्र की राजनीति में एक युग का पटाक्षेप सा लगता है। दूसरा निष्कर्ष यह भी है कि जनता की अदालत ने शिंदे सेना को असली शिवसेना और अजित पवार की एनसीपी को सही एनसीपी माना। शिंदे और अजित पवार अपनी पार्टियों को तोड़ते समय जितने विधायक अपने साथ ले गए थे, उससे कई अधिक विधायकों को उन्होंने जितवाया।
इससे दोनों का दबदबा बना रहेगा। कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष की महाविकास अघाड़ी बुरी तरह से पिट गई। उनमें से किसी भी पार्टी को नेता प्रतिपक्ष का पद तक नहीं मिलेगा। यह पद पाने के लिए नियमानुसार 10 प्रतिशत से अधिक यानी कम से कम 29 विधायक होने चाहिए।
जीत के कारक
महायुति की जबरदस्त जीत के कुछ प्रमुख कारक इस प्रकार हैं- लाड़की बहीण (लाड़ली बहना) योजना, हिंदुत्व के वोटों का ध्रुवीकरण, लोकसभा चुनावों जैसी तटस्थता छोड़कर संघ के स्वयंसेवकों का पूरी शक्ति के साथ मैदान में उतर जाना, महायुति के घटक दलों का परस्पर सामंजस्य और गजब का समन्वय, मराठों के मुकाबले ओबीसी को जोड़ने में संघ की सफलता के कारण आरक्षण के मुद्दे का निष्प्रभावी हो जाना। यहां तक कि आरक्षण के नेता मनोज जरांगे के करीबी राजेश टोपे तक मराठों के वोट न मिलने से हार गए। यही नहीं, आरक्षण आंदोलन में जरांगे के गुरु रहे शरद पवार की पार्टी को भी मराठों ने नकार दिया।
महिलाओं का समर्थन
विपक्षी अघाड़ी में आपसी लड़ाई अंत तक खत्म नहीं हुई। लाड़ली बहना योजना और मुंबई में धारावी झुग्गी का विकास अदाणी को सौंपने के विरोध का अघाड़ी को नुकसान हुआ लगता है। शुरुआत में लाडली बहना योजना का अघाड़ी विरोध करती रही और अंत में महायुति से भी अधिक राशि देने का चुनावी वादा कर दिया। इस बदलते रुख से महिलाओं का अघाड़ी ने विश्वास खो दिया।
पहली बार 6 प्रतिशत से अधिक बढ़ा। 12 से अधिक क्षेत्रों में महिलाओं ने पुरुषों से अधिक मतदान किया। लाडली बहना में मुस्लिम महिलाएं भी बहुतायत से हैं, जो अपने परंपरागत वोटबैंक से छितरकर महायुति के साथ आ गईं। मुस्लिम वोट बैंक ने भी इस बार विपक्षी अघाड़ी का साथ नहीं दिया। मुस्लिम वोटिंग अक्सर 80 प्रतिशत के आसपास होती है, इस बार लगभग आधी रही। मुस्लिम महिलाओं को घटा दिया जाए तो यह प्रतिशत और कम हो जाएगा।