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ऑपरेशन सिंदूर पर राजनीति क्यों?

’71 के युद्ध के बाद की राजनीति थी एक मिसाल

by Blitz India Media
June 5, 2025
in Hindi Edition
Why politics on Operation Sindoor?
विनोद शील

नई दिल्ली। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को लेकर देश में राजनीति तो बहुत पहले ही शुरू हो चुकी थी पर अब उसके नए-नए रंग देखने को मिल रहे हैं। लगभग वैसे ही जैसे उरी हमले के बाद हुई सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर हुआ था अथवा 2019 के आम चुनाव से पहले पुलवामा हमले के बाद बालाकोट एयरस्ट्राइक पर। वैसा ही सब कुछ अब नए तरीके से बिहार चुनाव से पहले भी देखने को मिल रहा है। आज देश के सामने सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा हो गया है कि राष्ट्रहित सर्वोपरि है या कुछ दलों का राजनीतिक स्वार्थ।

ऐसा प्रतीत हो रहा है कि देश के कुछ राजनीतिक दल सत्ता हासिल करने की लालसा में ऐसी-ऐसी बातें कर रहे हैं जिनसे ऐसा संदेश जा रहा है कि प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से वे देश के दुश्मनों; यानी पाकिस्तान और उसके समर्थकों के साथ खड़े से नजर आ रहे हैं। उनका दावा है कि सरकार से सवाल पूछना उनका अधिकार है। इसमें कोई दो राय नहीं कि किसी भी स्वतंत्र लोकतंत्र में प्रश्न किया जाना कोई गलत बात नहीं है पर अगर प्रश्न ऐसे पूछे जाएं जो देश के दुश्मनों की मदद करें; तो फिर उन सवालों और उनको पूछने वालों पर भी प्रश्नचिन्ह तो लगेगा ही।
‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तो अब खुलकर खेलने लगे हैं जबकि उनकी पार्टी के ही वरिष्ठ नेतागण उन सात सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों में शामिल हैं जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर पाकिस्तान के झूठ को बेनकाब करने के लिए 33 देशों की कूटनीतिक यात्रा पर भेजा। सबसे विस्मयकारी बात यह है कि कांग्रेस के तीन वरिष्ठ नेता- शशि थरूर, सलमान खुर्शीद और मनीष तिवारी ने इन सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों के सदस्य के रूप में जो कुछ वक्तव्य वैश्विक स्तर पर भारत के पक्ष के रूप में दिए; उनको लेकर ये तीनों नेता अपनी पार्टी कांग्रेस के ही निशाने पर हैं।

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लगता है विपक्षी दल इस बात से परेशान हैं कि भारतीय सेना ने जिस शूरवीरता के साथ पाकिस्तान को तीन दिनों में ही घुटनों के बल ला दिया; उसका राजनीतिक लाभ कहीं भारतीय जनता पार्टी और मोदी सरकार को न मिल जाए। पीएम मोदी ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद जहां कहीं भी सभा कर रहे हैं, वहां भारतीय सेना के पराक्रम का जिक्र भी अवश्य करते हैं। यहां कांग्रेस यह भूल जाती है कि जब 1971 के युद्ध में विजय का श्रेय इंदिरा गांधी को मिला था तो ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की सफलता का श्रेय भी पीएम मोदी को अवश्य मिलेगा ही। इसीलिए शायद कांग्रेस सहित कुछ विपक्षी दल ऑपरेशन सिंदूर को लेकर तरह-तरह की टिप्पणियां कर रहे हैं। ये टिप्पणियां काफी हद तक भारतीय सेना के पराक्रम का अपमान भी कर रही हैं। इन विपक्षी नेताओं; खासकर कांग्रेस के नेताओं के इन बेतुके बयानों का लाभ कहीं न कहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दुश्मन देश पाकिस्तान उठा रहा है। यही नहीं; ये बयान पाकिस्तान की मीडिया की सुर्खियां भी बन रहे हैं।

वैसे ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर चल रही सियासत फिलहाल रुकती नजर नहीं आ रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पश्चिम बंगाल दौरे के कुछ ही देर बाद ही ममता बनर्जी ने प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर तत्काल प्रभाव से विधानसभा का चुनाव तक करा लेने की चुनौती दे डाली थी। भोपाल पहुंचे राहुल गांधी के भाषण में भी वही तेवर नजर आए। राहुल गांधी को गुस्सा तो मध्य प्रदेश के कांग्रेस नेताओं पर भी था, लेकिन फूटा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ। सीजफायर के प्रसंग में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का उन्होंने जिक्र किया और कहा, ‘ट्रंप का एक फोन आया और नरेंद्र जी तुरंत सरेंडर हो गए जबकि सरकार साफ कह चुकी है कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को स्थगित करने में किसी तीसरे की भूमिका नहीं है। सरकार ने अनेक बार सर्वदलीय बैठकें बुलाईं, सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल विदेश दौरे पर भेजे गए; पर विपक्ष को शायद यह लग रहा है कि अगर उसने विरोध नहीं किया तो उसका वोट बैंक बिखर जाएगा और सारा फायदा बीजेपी को मिल जाएगा। वैसे इस विरोध के बीच में विपक्ष की तरफ से जल्दी ही यह भी साफ कर दिया जाता है कि वो पाकिस्तान के खिलाफ सरकार का साथ देगा, लेकिन बीजेपी को सेना के शौर्य का क्रेडिट नहीं लेने देगा। विपक्ष बार-बार ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर संसद का विशेष सत्र बुलाने की भी मांग कर रहा है। विपक्ष अब संसद में आर-पार की लड़ाई चाहता है। विपक्ष चाहता है कि बिहार चुनाव से पहले बीजेपी सरकार को संसद में घेरा जाए और इसी मकसद से संसद का विशेष सत्र बुलाए जाने की मांग भी जोर पकड़ रही है। बीच में लगा था कि कांग्रेस इस मुद्दे पर अकेले पड़ रही है क्योंकि तब एनसीपी-एसपी नेता शरद पवार ने राष्ट्रीय हित से जुड़े नाजुक मुद्दे पर संसद में बहस से परहेज की सलाह दी थी। समाजवादी पार्टी और टीएमसी तो इस मुद्दे पर कांग्रेस के साथ खड़े हो गए हैं लेकिन अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी कांग्रेस से खफा होने के कारण अलग हो गई है।

शशि थरूर ने कांग्रेस की आलोचना का जवाब देने की कसम खाई
इधर कांग्रेस सांसद शशि थरूर, जिन्होंने वर्तमान में आतंकवाद पर भारत के शून्य-सहिष्णुता के रुख को उजागर करने के लिए विदेश में सात भारतीय प्रतिनिधिमंडलों में से एक का नेतृत्व किया, ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर अपनी टिप्पणियों के बारे में अपनी ही पार्टी के भीतर आलोचना का जवाब दिया है। वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं के विरोध के बीच, थरूर ने कहा कि अभी आंतरिक बहस का समय नहीं है। मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, “यह हमारे लिए अपने मिशन पर ध्यान केंद्रित करने का समय है। एक संपन्न लोकतंत्र में टिप्पणियां और आलोचनाएं अपेक्षित हैं, लेकिन हम अभी उन पर ध्यान नहीं दे सकते। हम निश्चित रूप से अपने आलोचकों को संबोधित करेंगे और अपने सहयोगियों और मीडिया से बात करेंगे। न्यूयॉर्क में भारतीय-अमेरिकी समुदाय को संबोधित करते हुए थरूर की हालिया टिप्पणियों ने कांग्रेस के भीतर विवाद खड़ा कर दिया है जहां उन्होंने 22 अप्रैल को पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत की सैन्य प्रतिक्रिया का समर्थन किया।

शशि थरूर ने अमेरिका में भारत द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक्स की सराहना की थी जिसे कांग्रेस पार्टी के कुछ नेताओं ने भाजपा के दृष्टिकोण के समर्थन के रूप में देखा। इसी तरह सलमान खुर्शीद ने अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण का समर्थन किया जिससे कांग्रेस पार्टी में असहजता उत्पन्न हुई। मनीष तिवारी ने इथियोपिया में भारत की आतंकवाद विरोधी नीति का समर्थन किया। इससे कांग्रेस पार्टी के भीतर मतभेद उजागर हुए।

वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने विदेशी प्रतिनिधिमंडलों में थरूर जैसे विपक्षी नेताओं को शामिल करने के मोदी सरकार के कदम की आलोचना की। इस बीच, कांग्रेस नेता उदित राज ने थरूर की टिप्पणियों का मजाक उड़ाते हुए व्यंग्यात्मक ढंग से सुझाव दिया कि उन्हें भाजपा का सुपर प्रवक्ता नियुक्त किया जाना चाहिए। हालांकि, थरूर ने गहरे वैचारिक मतभेदों का हवाला देते हुए भाजपा में शामिल होने की किसी भी अटकल को खारिज कर दिया है। सलमान खुर्शीद भी कांग्रेस के नेताओं के निशाने पर हैं। उपरोक्त सारी बातों पर गौर किया जाए तो सवाल सबसे बड़ा यही है कि क्या राजनैतिक स्वार्थ कभी राष्ट्रहित से भी ऊपर हो सकते हैं? तो इसका एक ही उत्तर है– कभी नहीं। आज सिर्फ एक ही बात की आवश्यकता है कि विश्व को केवल यही संदेश जाए कि हम एक हैं और किसी भी मुद्दे पर कोई मतभेद नहीं। हम सभी के लिए 1971 का युद्ध एक अनुकरणीय उदाहरण है जब भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान, भारतीय विपक्ष ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनकी सरकार को बिना कोई प्रश्न किए पूर्ण समर्थन दिया था।

युद्ध के दौरान, किसी प्रमुख राजनीतिक दल या नेता ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व का सार्वजनिक रूप से विरोध नहीं किया जबकि मोदी विरोध के नाम पर विपक्षी दल सारी नैतिकता भुला बैठे हैं। यह राष्ट्रीय संकट के समय विपक्ष की एकजुटता और देशहित को प्राथमिकता देने का अनुपम उदाहरण है।
देश में राजनीतिक विरोध राजनीतिक मुद्दों पर तो हो सकता है पर राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दों पर तो कदापि नहीं होना चाहिए। इसके साथ ही जो दल सवाल खड़े कर रहे हैं; कहीं ऐसा न हो कि देशहित के नाम पर उठाए गए उनके ये सवाल ही इन दलों के वजूद पर सवाल खड़े कर दें और वोट बैंक को बचाने के चक्कर में जो साख अभी बची है, उससे भी ये दल हाथ धो बैठें।

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