ब्लिट्ज ब्यूरो
नई दिल्ली। ‘लैंसेट’ पत्रिका के एक अध्ययन में देश में संक्रमण से 2019 में 29.9 लाख लोगों की मौत हुई थी जिसमें 60 फीसद संख्या बैक्टीरिया संक्रमण और 44.6 फीसद मौत एंटीबायोटिक दवाओं के मरीज पर बेअसर रहने के कारण हुई थी।
बीसवीं सदी में सर एलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने पहली एंटीबायोटिक के रूप में पेनिसिलिन की खोज की थी। यह दुनिया के लिए वरदान बन कर सामने आई थी। इस खोज ने मौत के मुंह में जा रहे लाखों मरीजों को जीवनदान दिया। इसके बाद पूरी दुनिया में एंटीबायोटिक का ऐसा चलन चला कि चिकित्सक ही नहीं, आम लोग भी हर मर्ज का इलाज एंटीबायोटिक में खोजने लगे। मगर अधिक उपयोग से अब इसके विपरीत परिणाम आने लगे हैं।
अनियंत्रित उपयोग पर रोक की चेतावनी
बेवजह एंटीबायोटिक के सेवन के कारण शरीर में मौजूद जीवाणु अब प्रतिरोधी जीवाणु (बैक्टीरिया) का रूप लेकर इतने अधिक शक्तिशाली बन गए हैं कि इन बैक्टीरिया पर संक्रमण रोकने की सारी दवाएं बेअसर साबित होने लगी हैं। दुनिया भर में दस लाख संक्रमित मरीजों की मौत सिर्फ इसलिए हो रही है कि उपलब्ध एंटीबायोटिक बेअसर साबित हो रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपट कहती है कि एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने के कारण 2050 तक विश्व में मौत की दर एक करोड़ प्रतिवर्ष तक पहुंच जाएगी।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कई देशों को चेतावनी जारी की है कि बगैर स्वास्थ्य परीक्षण के मरीजों को एंटीबायोटिक दवा देने पर पूरी तरह रोक लगाई जानी चहिए। 2030 तक सिर्फ आपातकालीन स्थिति को छोड़ कर, बगैर स्वास्थ्य परीक्षण के, एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग पर विश्व के सभी देशों को रोक लगानी होगी। अन्यथा हालात बेकाबू हो सकते हैं। इंडियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च (आइसीएमआर) की रपट चिंता बढ़ाने वाली है। मौजूदा स्थिति में चालीस फीसद मरीजों पर एंटीबायोटिक दवाओं ने असर दिखाना बंद कर दिया है। निमोनिया, टाइफाइड और मूत्र संक्रमण में अधिकांश एंटीबायोटिक दवाएं अब निष्कि्रय साबित हो रही हैं।
आसान उपलब्धता से खतरा
देश में बगैर डाक्टरी पर्चे के आसानी से एंटीबायोटिक दवाओं की उपलब्धता, बची हुई दवा का मरीज द्वारा भविष्य में स्वयं या परिवार के लिए उपयोग में लाना और एंटीबायोटिक को उचित रूप से नष्ट करने के बजाय कचरे में फेंकना गंभीर मसला है। दूसरी ओर अपनी जीनोमिक संरचना में परिवर्तन कर बैक्टीरिया मौजूदा दवाओं के प्रति अपनी प्रतिरोधक क्षमता लगातार विकसित कर रहे हैं।
झोलाछाप डॉक्टरों की बढ़ती संख्या और गैर पेशेवर इलाज
देश में झोलाछाप डाक्टरों की भरमार, रोग के सामान्य लक्षण भर देख कर गैर पेशेवर द्वारा बीमारी का इलाज, दवाओं का खर्च बढ़ाने के लिए अनावश्यक एंटीबायोटिक दवाओं को मरीज के पर्चे में जोड़ा जाना, मर्ज को लाइलाज बना कर मरीज को मौत के मुंह में धकलने से कम नहीं है। बैक्टीरिया, वायरस और अन्य रोगाणुओं का धरती पर इतिहास रहा है। मानव जीवन की उत्पत्ति इसके बहुत बाद की है।
बैक्टीरिया और मानव जीवन का ऐतिहासिक संबंध
पृथ्वी के हर कालखंड में सभी प्रतिकूल परिस्थितियों में बैक्टीरिया जीवित रहे हैं। क्योंकि इनके अंदर प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर प्रकृति परिवर्तन में जीवित रहने की दक्षता है। मानव शरीर में लाखों की संख्या में सुसुप्त अवस्था में बैक्टीरिया मौजूद हैं, जिसमें कुछ अच्छे तो कुछ बुरे हैं। बीमारी की हालत में बुरे बैक्टीरिया मानव शरीर को नुकसान पहुंचाने के लिए सक्रिय होते हैं। बैक्टीरिया एकल कोशिका के रूप में शरीर के अंदर-बाहर स्वतंत्र रूप से जीवित रह सकता है। इसके विपरीत वायरस परजीवी है, जो स्वतंत्र रूप में जीवित नहीं रह सकता है। बीमारी की स्थिति में दोनों लक्षण एक जैसे ही हैं। इसलिए मात्र बाह्य परीक्षण के आधार पर यह कह पाना असंभव है कि संक्रमण का कारण क्या है।
स्वास्थ्य परीक्षण के बिना उपयोग खतरनाक
संक्रमण में बगैर खून और अन्य जांच के बिना एंटीबायोटिक का उपयोग मरीज के शरीर के साथ खिलवाड़ है। शल्य चिकित्सा, कैंसर और अंग प्रत्यारोपण में बैक्टीरिया नियंत्रण के लिए एंटीबायोटिक दवाओं से इलाज में आवश्यकता होती है, लेकिन शरीर में मौजूद बैक्टीरिया अगर पहले से ही प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर शक्तिशाली हो चुके हों, तो इन परिस्थितियों में मौजूदा एंटीबायोटिक से संक्रमण पर काबू कर पाना बहुत मुश्किल होता है। जबकि संक्रमण की रफ्तार कई गुना अधिक हुआ करती है। इन परिस्थितियों में इलाज लंबा और खर्चीला तो होता ही है, यह लाइलाज भी बन सकता है।
‘लैंसेट’ पत्रिका के एक अध्ययन में देश में संक्रमण से 2019 में 29.9 लाख लोगों की मौत हुई थी। जिसमें 60 फीसद संख्या बैक्टीरिया संक्रमण और 44.6 फीसद मौत एंटीबायोटिक दवाओं का मरीज पर बेअसर रहने के कारण हुई थी। अस्पतालों में नवजात शिशुओं को धड़ल्ले से एंटीबायोटिक देने का चलन है। इसके पीछे वजह यह है कि एंटीबायोटिक दवा नवजात को देने से पहले उसके रक्त की जांच आवश्यक है, लेकिन देश के अधिकांश शासकीय और निजी अस्पतालों में ‘माइक्रोबायोलाजिस्ट’ के पद खाली हैं। लिहाजा, जांच नहीं होती।
रक्त जांच के बिना यह कह पाना मुश्किल है कि संक्रमित नवजात पर कौन-सी एंटीबायोटिक कारगर है। जांच रपट के अभाव में चिकित्सक नवजात के शरीर में एंटीबायोटिक का उपयोग तब तक करते हैं, जब तक शिशु बेहतर महसूस नहीं करता है। देश में नवजात शिशुओं की मौत की संख्या प्रति हजार पर छब्बीस है।
बढ़ता स्वास्थ्य जोखिम
वर्तमान में बच्चों को भी एंटीबायोटिक दवाएं दी जाने लगी हैं। इससे उनके शरीर में मौजूद बैक्टीरिया अपनी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा कर इतने शक्तिशाली हो सकते हैं कि आगामी पांच-दस वर्ष बाद एंटीबायोटिक बेअसर साबित हो सकती है। यह भविष्य में घटित होने वाले खतरे की आहट है। वर्ष 2017 में स्वास्थ्य मंत्रालय ने एंटीबायोटिक के इस्तेमाल को लेकर एक दिशा-निर्देश जारी किया था, जिसमें चिकित्सक के पर्चे के बगैर एंटीबायोटिक के विक्रय पर सख्ती के साथ रोक, रक्त की जांच रपट के बगैर चिकित्सकों द्वारा स्वत: ज्ञान के आधार पर एंटीबायोटिक के इस्तेमाल पर रोक और आम जनता को भी एंटीबायोटिक के उपयोग में अधिक जागरूकता के लिए अधिकाधिक कार्यक्रम चलाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों को दी थी, लेकिन केंद्र सरकार के इस आदेश पर केरल के अलावा दक्षिण के कुछ राज्यों ने ही गंभीरता दिखाई। जबकि उत्तर भारत के राज्यों में जहां चिकित्सक के पर्चे के बगैर दवाएं उपलब्ध हैं, तो झोलाछाप चिकित्सक ग्रामीण आबादी के इलाज में एंटी वायरस के साथ मनमाफिक एंटीबायोटिक का उपयोग बराबर की मात्रा में करते हैं। इन राज्यों में एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुंध उपयोग से बचने के लिए आम लोगों में जागरूकता नहीं लाई गई है।
एंटीबायोटिक दवाओं की पहचान करना आम आदमी के लिए मुश्किल है। इसलिए होना यह चाहिए कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय बाजार में बिकने वाली दवाओं में एंटी बैक्टीरिया और एंटी वायरल दवाओं पर उनकी पहचान जारी करे। इसमें रंग के अंतर या पहचान चिह्नित कर उपभोक्ताओं को जागरूक किया जा सकता है कि एंटीबायोटिक दवाओं के इस्तेमाल में उन्हें अतिरिक्त सुरक्षा बरतनी है। चिकित्सक द्वारा लिखी एंटीबायोटिक की पूरी अवधि की दवा का उपयोग होना चाहिए।
अपने मन से कम या अतिरिक्त मात्रा में उपयोग नहीं होना चाहिए। बगैर चिकित्सक की सलाह के एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग मरीज को नहीं करना चहिए। बची हुई दवा कहीं भी नहीं फेंकनी चाहिए। यह जागरूकता स्कूली और महाविद्यालयी छात्रों में पैदा की जानी चाहिए, ताकि वे अपने परिवारों में जागरूकता ला सकें।