विनोद शील
नई दिल्ली। भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ ने ‘जिला न्यायपालिका के राष्ट्रीय सम्मेलन’ के समापन समारोह में अपने भाषण के दौरान न्यायिक भर्ती प्रक्रिया में सुधार के लिए राष्ट्रीय स्तर की रणनीति की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश डाला और जिला न्यायपालिका के लिए राष्ट्रीय स्तर पर न्यायाधीशों की भर्ती का आह्वान किया।
सर्वोच्च न्यायालय के 75 वर्ष पूरे
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के 75 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में आयोजित इस राष्ट्रीय सम्मेलन में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने बढ़ते केसों के बैकलॉग को कम करने में कुशल न्यायिक कर्मियों की महत्वपूर्ण भूमिका पर जोर देते हुए कहा, अब समय आ गया है कि हम न्यायिक सेवाओं में सदस्यों की भर्ती करके क्षेत्रवाद और राज्य-केंद्रित चयन की संकीर्ण घरेलू दीवारों को पार करके राष्ट्रीय एकीकरण के बारे में सोचें।
वर्तमान क्षेत्रीय दृष्टिकोण
उनका मानना है कि न्यायिक नियुक्तियों के लिए वर्तमान क्षेत्रीय दृष्टिकोण, प्रणाली की अपनी रिक्तियों को कुशलतापूर्वक संबोधित करने की क्षमता को बाधित करता है।
– तेजी से मिला न्याय ही महिलाओं को सुरक्षा का भरोसा देगा – पीएम मोदी
– तारीख पर तारीख की पुरानी संस्कृति बदलनी होगी – मेघवाल
लंबित मामलों की बड़ी संख्या एक चुनौती
मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने अपने संबोधन में इस बात पर जोर दिया कि न्याय प्रदान करना एक आवश्यक सेवा है। उन्होंने कहा, जिला स्तर पर न्यायिक कर्मियों की रिक्तियां 28 प्रतिशत और गैर-न्यायिक कर्मचारियों की रिक्तियां 27 प्रतिशत हैं। मामलों के निपटारे के लिए अदालतों को 71 प्रतिशत से 100 प्रतिशत की क्षमता से अधिक काम करना होगा।
भर्ती कैलेंडर को मानकीकृत करने पर विचार-विमर्श
सीजेआई ने रिक्तियों को भरने के लिए सम्मेलन में न्यायाधीशों के चयन के मानदंडों और सभी रिक्तियों के लिए भर्ती कैलेंडर को मानकीकृत करने पर विचार-विमर्श किया। उन्होंने कहा कि न्यायिक बुनियादी ढांचे में विकास का लंबित मामलों को कम करने की क्षमता पर सीधा प्रभाव पड़ता है। हमारा वर्तमान राष्ट्रीय औसत निपटान दर 95 प्रतिशत है। प्रगति के बावजूद, लंबित मामलों से निपटना एक चुनौती बना हुआ है। हमारे निपटान-से-फाइलिंग अनुपात को बढ़ाना कुशल कर्मियों को आकर्षित करने पर निर्भर करता है।
न्यायालयों तक पहुंच को बढ़ाया जाए
उन्होंने कहा कि हमारी प्राथमिकता है कि न्यायालयों तक पहुंच को बढ़ाया जाए। इसके लिए हम इन्फ्रास्ट्रक्चर का ऑडिट करेंगे, कोर्ट में मेडिकल सुविधाएं आदि स्थापित करेंगे और ई-सेवा केंद्र व वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग उपकरणों का उपयोग बढ़ाएंगे। इन प्रयासों का मकसद न्याय तक सभी की पहुंच को आसान बनाना है। उन्होंने कहा, इसके साथ ही हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि हमारे न्यायालय समाज के सभी लोगों के लिए सुरक्षित और अनुकूल हों, खासतौर पर महिलाओं, दिव्यांगों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य संवेदनशील समूहों के लिए।
उन्होंने कहा कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय का अनुसंधान और नियोजन केंद्र राज्य न्यायिक अकादमी में राज्य-स्तरीय प्रशिक्षण मॉड्यूल को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं के साथ एकीकृत करने के लिए एक श्वेतपत्र तैयार कर रहा
व र्तमान में, राज्य न्यायिक अकादमियों के कुछ पाठ्यक्रमों में एक मजबूत पाठ्यक्रम है, जबकि अन्य नए योग्य न्यायाधीशों को कानून विषयों के साथ फिर से जोड़ने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। हम न्यायिक प्रशिक्षण के लिए एक व्यवस्थित, राष्ट्रव्यापी पाठ्यक्रम स्थापित करने और अपनी प्रगति को ट्रैक करने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करने की प्रक्रिया में हैं।
नए पाठ्यक्रम का संदेश
सीजेआई ने कहा कि नया पाठ्यक्रम अभिनव प्रशिक्षण विधियों, एक विषयगत रूपरेखा, प्रशिक्षण कैलेंडर में एकरूपता, न्यायिक प्रशिक्षण को आईटी के साथ एकीकृत करने, ज्ञान अंतराल को भरने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी को फिर से तैयार करने और सबसे महत्वपूर्ण रूप से एक प्रतिक्रिया और मूल्यांकन पद्धति स्थापित करने का वादा करता है।
प्रथाओं और पहलों को संस्थागत बनाया जाए
उन्होंने कहा कि मेरा हमेशा से मानना रहा है कि हमारी प्रथाओं और पहलों को संस्थागत बनाया जाना चाहिए। यह सुनिश्चित करना अक्सर मुश्किल होता है कि हमारी प्रथाएं सिर्फ़ एक बार की कोशिश न हों बल्कि संस्था के लिए स्वाभाविक बन जाएं। जब न्यायिक प्रशिक्षण की बात आती है, तो हमने समय-समय पर पाठ्यक्रम को अपडेट होते देखा है। हालांकि, अब समय आ गया है कि हम अपनी सर्वोत्तम प्रथाओं का सही मायने में उपयोग करें और सुनिश्चित करें कि हर अंतिम न्यायिक अधिकारी हमारे द्वारा पेश किए जाने वाले सर्वोत्तम का लाभार्थी हो।
कम्युनिकेशन गैप को पाटने की जरूरत
सीजेआई ने जिला न्यायपालिका और उच्च न्यायालयों के बीच कम्युनिकेशन गैप को पाटने के मुद्दे पर भी बात की। सीजेआई ने कहा कि इस तरह के ‘अनुमानित कम्युनिकेशन गैप’ का अस्तित्व ‘औपनिवेशिक काल और औपनिवेशिक अधीनता का परिणाम है।’ चीफ जस्टिस ने कहा, मुख्य रूप से, इन अंतरों की पहचान न्यायाधीशों के बीच सहकारिता, निरीक्षण या प्रशासनिक न्यायाधीश की भूमिका और न्यायिक अधिकारियों के मूल्यांकन में की गई है। सहकारिता सहकर्मियों के बीच अधिकार का स्वैच्छिक बंटवारा है।
न्यायाधीशों के बीच खुला, स्पष्ट और समग्र संचार का माहौल जरूरी
न्यायिक अधिकारियों और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के बीच खुला, स्पष्ट और समग्र संचार का माहौल निष्पक्ष स्थानांतरण नीतियों, काम के समान वितरण और पदोन्नति और मूल्यांकन में पारदर्शिता प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है।
निरीक्षण या प्रशासनिक
न्यायाधीशों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि न्यायिक अधिकारियों के मूल्यांकन की उनकी प्रक्रिया समय की अवधि में एकत्र किए गए डेटा पर आधारित हो, न कि केवल निर्दिष्ट दिनों पर निरीक्षण के माध्यम से। हम जिस उद्देश्य को प्राप्त करना चाहते हैं, वह जिला न्यायपालिका के सदस्यों में स्वामित्व और अपनेपन की भावना पैदा करना है, जो अपने दीर्घकालिक और लगातार प्रदर्शन के आधार पर न्याय किए जाने के हकदार हैं।
न्यायिक अधिकारियों की भावनात्मक भलाई
मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों और न्यायिक अधिकारियों की भावनात्मक भलाई पर खुलकर चर्चा करने की आवश्यकता को भी मुख्य न्यायाधीश ने दोहराया।
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि न्यायिक अधिकारियों की भावनात्मक और मानसिक भलाई का न्याय प्रदान करने में दक्षता और न्यायालय के कामकाज में जनता के विश्वास को बनाए रखने से सीधा संबंध है। न्यायिक कल्याण एक व्यक्तिगत चिंता नहीं है। बल्कि कानून के शासन को बनाए रखने और जनता के विश्वास को बनाए रखने के लिए एक लोकतांत्रिक अनिवार्यता है।
जिला स्तर पर न्यायालय का बुनियादी ढांचा महिलाओं के अनुकूल नहीं
सीजेआई चंद्रचूड़ ने इस तथ्य पर भी प्रकाश डाला कि जिला स्तर पर न्यायालय का बुनियादी ढांचा महिलाओं के अनुकूल नहीं है। हमें बिना किसी सवाल के इस तथ्य को बदलना चाहिए कि जिला स्तर पर हमारे न्यायालय के बुनियादी ढांचे का केवल 6.7 प्रतिशत ही महिलाओं के अनुकूल है। क्या यह ऐसे देश में स्वीकार्य है जहां कुछ राज्यों में भर्ती के बुनियादी स्तर पर 60 से 70 प्रतिशत से अधिक महिलाएं शामिल होती हैं? इस संदर्भ में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि न्यायपालिका में महिलाओं की बढ़ती संख्या के साथ, अपने सहकर्मियों के प्रति अनजाने में जो पूर्वाग्रह हो सकते हैं, उनका सामना किया जाना चाहिए। प्रासंगिक रूप से, सीजेआई ने न्यायाधीशों की मानसिक भलाई के बारे में बातचीत को कलंकमुक्त करने पर भी जोर दिया।
स्वतंत्रता और आत्मविश्वास की भावना
मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि युवा न्यायाधीशों के मन में स्वतंत्रता और आत्मविश्वास की भावना पैदा करने का प्रयास किया गया है, उन्हें यह दिखाकर कि उन्हें सिस्टम द्वारा संरक्षित किया जाएगा।
अंत में, सीजेआई ने न्यायिक अधिकारियों के लिए बेहतर और अधिक कुशल कार्य स्थितियों की आवश्यकता पर भी जोर दिया, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वित्तीय झटकों के कारण उनकी स्वतंत्रता और भय और पक्षपात से मुक्ति से समझौता न हो।
राष्ट्रपति भी रहीं मौजूद
भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति सूर्यकांत और कानून एवं न्याय मंत्रालय के स्वतंत्र प्रभार वाले केंद्रीय राज्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने भी इस सम्मेलन में शिरकत की। मेघवाल ने न्याय की प्रक्रिया को आसान बनाने और तारीख पर तारीख की पुरानी संस्कृति को बदलने का सुझाव दिया।
पीएम मोदी भी शामिल
इसके पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी छह सत्रों वाले इस दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन समारोह में शामिल हुए थे। इस मौके पर उन्होंने टिकट और सिक्के का अनावरण किया। महिलाओं के खिलाफ अपराध और बच्चों की सुरक्षा पर भी उन्होंने प्रतिक्रिया दी। प्रधानमंत्री ने कहा कि महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के मामलों में जितनी तेजी से न्याय मिलेगा, उतनी जल्दी आधी आबादी को सुरक्षा का भरोसा मिलेगा।
ग्रामीण अदालत जाना पसंद नहीं करते
हिंदी में दिए गए भाषण में राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने कहा कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की न्यायिक प्रणाली के सजग प्रहरी के रूप में अपना अमूल्य योगदान दिया है। उन्होंने पीड़ितों और उन महिलाओं के बच्चों की दुर्दशा पर भी प्रकाश डाला, जो किसी भी अपराध की शिकार होती हैं। राष्ट्रपति ने बताया कि ग्रामीण लोग अभी भी अदालत जाना पसंद नहीं करते हैं।
1986 में एआईजेएस के गठन की हुई थी संस्तुति
अखिल भारतीय न्यायिक सेवा या एआईजेएस का विचार कई वर्षों से चल रहा है लेकिन हितधारकों के बीच मतभेद के कारण इस दिशा में आज तक कोई महत्वपूर्ण विकास नहीं हुआ है। विशेष रूप से, राष्ट्रपति मुर्मू ने भी पिछले साल नवंबर में वंचित पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों को न्यायपालिका में शामिल होने में मदद करने के लिए ऐसी प्रणाली का आह्वान किया था।
भारतीय विधि आयोग ने 1986 में जारी अपनी 116वीं रिपोर्ट में एआईजेएस के गठन की संस्तुति की थी। 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि विधि आयोग की संस्तुतियों की “जल्दी से जांच की जानी चाहिए और केंद्र द्वारा यथाशीघ्र इसे लागू किया जाना चाहिए”।
केंद्र सरकार ने 2016 में दिल्ली उच्च न्यायालय को बताया कि इस मुद्दे पर राज्य और न्यायपालिका के बीच गतिरोध बना हुआ है। जनवरी 2017 में विधि मंत्रालय द्वारा एआईजेएस के गठन पर औपचारिक रूप से चर्चा भी की गई थी।
2018 में, सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीशों की भर्ती के लिए एआईजेएस के गठन की मांग करने वाली एक जनहित याचिका (पीआईएल) पर विचार करने से इनकार कर दिया, यह देखते हुए कि यह ऐसा कुछ नहीं है जो “न्यायिक आदेश” द्वारा किया जा सकता है।
2021 में, तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू द्वारा दिए गए एक बयान के अनुसार, 8 राज्यों और 13 उच्च न्यायालयों ने यह विचार व्यक्त किया कि वे इस पहल के पक्ष में नहीं थे जबकि केंद्र सरकार का मानना था कि “समग्र न्याय वितरण प्रणाली को मजबूत करने के लिए एक उचित रूप से तैयार अखिल भारतीय न्यायिक सेवा महत्वपूर्ण है।”
लंबित मामलों की संख्या कम करने के लिए योजना
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने बताया कि लंबित मामलों की संख्या कम करने के लिए ठोस योजना बनाई है। योजना के तीन मुख्य चरण हैं। पहले चरण में जिला स्तर पर समितियों का गठन होगा। दूसरे चरण में, उन मामलों का निपटारा किया जाएगा जो 10 से 30 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं। तीसरे चरण में, जनवरी 2025 से जून 2025 तक दस वर्षों से अधिक समय से लंबित मामलों की सुनवाई की जाएगी। लंबित मामलों से निपटने के अन्य उपायों में विवादों का समाधान करने की पहल भी शामिल है। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार राष्ट्रीय लोक अदालत आयोजित की, जिसमें 1,000 से ज्यादा मामलों का समाधान किया गया।