दीपक द्विवेदी
नई दिल्ली। चुनाव के समय नेताओं द्वारा किए जाने वाले वादों को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं। हर चुनाव में राजनीतिक पार्टियां कई बड़े-बड़े वादे करती हैं लेकिन चुनाव खत्म होते ही उनमें से कई वादे धरे के धरे रह जाते हैं। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मुद्दे पर बात करते हुए चुनावों में ‘रेवड़ी’ यानी मुफ्तखोरी की राजनीति पर चिंता जताई। उनका मानना है कि वोट पाने के लिए पार्टियों द्वारा किए जाने वाले ऐसे वादे जनता को गुमराह कर सकते हैं और राज्य की अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ डाल सकते हैं।
पर सवाल ये है कि क्या चुनावी वादों को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाना संभव है? ये इतना आसान नहीं है, क्योंकि चुनावी वादे ज्यादातर आकांक्षात्मक होते हैं और इनमें कोई ठोस शर्त या समय सीमा नहीं होती। राजनीतिक दल जब अपने वादे पूरे नहीं कर पाते, तो वो आर्थिक या प्रशासनिक परेशानियों का हवाला देते हैं। फिलहाल भारत में ऐसी कोई कानूनी व्यवस्था नहीं है जो किसी पार्टी को उसके अधूरे चुनावी वादों के लिए जिम्मेदार ठहरा सके। कुछ विशेषज्ञों का सुझाव है कि धोखाधड़ी से जुड़े कानून जैसे भारतीय दंड संहिता की धारा 420, नई भारतीय न्याय संहिता की धारा 318 का विस्तार कर चुनावी वादों को इसमें शामिल किया जाए लेकिन ऐसा करना एक बड़ी कानूनी चुनौती है, जिससे चुनावी प्रक्रिया में अत्यधिक नियंत्रण का खतरा पैदा हो सकता है।
चुनाव आयोग का इस पूरे मामले में अहम रोल है, जो चुनावों की निगरानी करता है और निष्पक्षता सुनिश्चित करता है। 2013 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद, चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों को सलाह दी थी कि वे अपने घोषणापत्रों में ज्यादा ‘मुफ्तखोरी’ के वादे न करें लेकिन चुनाव आयोग के पास इन वादों को लागू करने की शक्ति नहीं है, इसलिए जवाबदेही का बोझ मुख्य रूप से मतदाताओं पर ही है।
दूसरे लोकतांत्रिक देशों में भी ऐसे ही मुद्दे देखने को मिलते हैं। यूनाइटेड किंगडम जैसे देशों में अदालतें चुनावी वादों में दखल नहीं देतीं और इसे जनता की जागरूकता पर छोड़ देती हैं। यूरोपीय संघ के कुछ देशों में पार्टियों से ये अपेक्षा की जाती है कि वे अपने घोषणापत्रों में वादों का आर्थिक आकलन दें लेकिन वहां भी वादे पूरे न करने पर सजा का प्रावधान नहीं है। अमेरिका में भी चुनावी वादों को गैर-बाध्यकारी माना जाता है और वहां मीडिया व जनता के सवालों के जरिए जवाबदेही तय की जाती है। ये उदाहरण बताते हैं कि चुनावी वादों को कानूनी रूप देने में कई अड़चनें और जोखिम शामिल हैं।
अगर चुनावी वादों को कानूनी रूप से बाध्यकारी बना भी दिया जाए, तो इससे पार्टियां शायद नए और साहसी कदम उठाने से डर सकती हैं। इसके अलावा, किसी पार्टी पर ये साबित करना भी मुश्किल होगा कि उसने जानबूझकर अवास्तविक वादे किए थे, क्योंकि कई बार सच्चे इरादों से किए गए वादे भी हालात की वजह से पूरे नहीं हो पाते।
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि सीधे कानून बनाने के बजाय कुछ और तरीकों से जवाबदेही को बढ़ाया जा सकता है। जैसे, पार्टियों को अपने घोषणापत्र के वादों पर सालाना प्रगति रिपोर्ट देने की अनिवार्यता होनी चाहिए, जिससे जनता को उनके काम की असली तस्वीर मिले। कुछ लोग सुझाव देते हैं कि सार्वजनिक हित याचिका (पीआईएल) के जरिए ऐसे मामलों में हस्तक्षेप हो सकता है, जहां वादे जानबूझकर भ्रामक प्रतीत हों। इसके अलावा, पार्टियों से अपने वादों का आर्थिक आकलन कराना भी जरूरी किया जा सकता है, ताकि अव्यावहारिक वादों पर रोक लग सके।
प्रधानमंत्री मोदी की इस मुद्दे पर चिंता इस बात को भी दर्शाती है कि जनता भी अब अधिक जिम्मेदारी और पारदर्शिता वाले चुनाव प्रचार की अपेक्षा कर रही है। चुनावी वादों को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाना भले ही कठिन हो, लेकिन चुनाव आयोग को घोषणापत्रों की व्यवहार्यता की जांच का अधिकार देना एक सकारात्मक कदम हो सकता है। इससे यह सुनिश्चित हो सकेगा कि चुनावी वादे हकीकत के करीब हों और जनता को भ्रमित न करें।
आखिरकार, चुनावी वादों को लेकर उठ रही यह बहस ये बताती है कि जवाबदेही और लोकतांत्रिक लचीलेपन में संतुलन बनाना जरूरी है। भारत समेत दूसरे लोकतांत्रिक देशों में न्यायालय और चुनाव आयोग चुनावी वादों पर सीधा नियंत्रण नहीं रखते और इसे मतदाताओं के विवेक पर छोड़ते हैं। पारदर्शिता बढ़ाने, घोषणापत्र वादों की नियमित रिपोर्टिंग और जनता को जागरूक करने से मतदाता बेहतर फैसले ले सकते हैं। कानूनी दखल अंतिम विकल्प होना चाहिए, क्योंकि इससे राजनीतिक संवाद बाधित हो सकता है। इसके बजाय, जनता को सशक्त बनाना कि वे चुनावों में पार्टियों को उनके वादों पर जवाबदेह बनाएं, एक व्यावहारिक रास्ता हो सकता है।