दीपक द्विवेदी
चीन के साथ विगत कई माह से चले आ रहे सीमा विवाद को लेकर कोई समझौता हो जाने के आसार तो बहुत पहले से ही बनने लगे थे पर यह समझौता कब साकार रूप लेगा, इसकी भूमिका बनने में अनावश्यक विलंब हो रहा था। आखिरकार यह समझौता हो ही गया। इस समझौते का एक प्रमुख कारण भारत की यह अटल कूटनीति तो रही ही कि जब तक सीमा पर पहले जैसी स्थिति वापस नहीं लौटती तब तक चीन से संबंध सामान्य नहीं हो सकते। इसके अलावा रूस में हुए ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन ने भी इसमें कहीं न कहीं अहम भूमिका निभाई। यह जगजाहिर है कि जून 2020 में गलवान घाटी में भारतीय सैनिकों के चीनी सेना के साथ खूनी संघर्ष के बाद दोनों देशों के संबंध बुरी तरह से पटरी से उतर गए थे पर भारत के अडिग रवैये के कारण चीनी सेना गलवान घाटी में तो पुरानी स्थिति में लौट गई थी पर उसने देपांग और डेमचोक में यथास्थिति में बदलाव के इरादे को लेकर आक्रामक रुख अपनाए रखा था। इसके जवाब में भारतीय सेना ने भी चीन से लगती सीमा पर अपनी निगरानी बढ़ा रखी थी और चीन को ऐसा कोई मौका नहीं दिया कि वो इस स्थिति का थोड़ा सा भी गलत फायदा उठा सके। इसके अतिरिक्त दोनों देशों में वार्ता का क्रम भी कायम रहा जिसकी वजह से हालात सामान्य होने की परिस्थितियों का भी स्वत: निर्माण होता रहा।
चीन ने हमेशा यही चाहा कि सीमा पर भारत तनाव की अनदेखी कर के उससे सामान्य संबंध बनाने के लिए सहमत हो जाए पर भारत ने इस मुद्दे पर उसकी किसी भी दलील को तवज्जो नहीं दी। अंतत: चीन को समझ में आ गया कि उसकी दादागीरी या चतुराई काम नहीं आने वाली है। यह बात गौर करने वाली है कि भारत ने अपने अडिग रवैये से चीन को एक बार फिर झुकने के लिए मजबूर किया। इसके पूर्व डोकलाम में भी उसने चीनी सेना के अतिक्रमणकारी रवैये के खिलाफ अपनों सेनाओं को तैनात कर दिया था। तब चीन को अपने कदम पीछे हटाने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इससे यह भी संदेश चीन को गया कि भारत अब ऐसी स्थिति में नहीं है कि उसको दबाया जा सके और न ही यह 1962 वाला समय है।
यहां यह भी जिक्र करना जरूरी है कि समझौते की दहलीज तक पहुंचने में दोनों देशों के बीच सीमायी मामलों पर वर्किंग मैकेनिज्म फॉर कंसल्टेशन एंड कॉर्डिनेशन ऑन इंडिया चाइना की कई दौर की मीटिंगों की भी अहम भूमिका रही। भारत और चीन के बीच मिलिट्री और डिप्लोमेटिक स्तर की लगातार मीटिंगें होती रहीं। इन मीटिंगों का स्ट्रक्चर वैसा नहीं था जैसा पहले दोनों देशों की सेनाओं के बीच कोर कमांडर स्तर की मीटिंग का हुआ करता था। इनमें मिलिट्री एक्टिव तौर पर शामिल रही लेकिन बातचीत पूरी तरह से डिप्लोमेटिक गाइडेंस में होती रही। कुल मिला कर चीन के साथ धैर्य की रणनीति काम आई।
चार वर्ष बाद अब अगर भारत और चीन एलएसी पर 2020 से पहले की भांति गश्त करने के लिए तैयार हुए हैं तो यह भारत के लिए निस्संदेह एक बड़ी कूटनीतिक कामयाबी है।
इस बात में भी कोई संदेह नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में शामिल होने से ठीक पहले भारत और चीन के मध्य वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) को लेकर एक महत्वपूर्ण समझौते पर सहमति होना बेशक एक सुखद संयोग रहा। चार वर्ष बाद अब अगर भारत और चीन एलएसी पर 2020 से पहले की भांति गश्त करने के लिए तैयार हुए हैं तो यह भारत के लिए निस्संदेह एक बड़ी कूटनीतिक कामयाबी है। इसके बाद ब्रिक्स शिखर बैठक से इतर अगर दोनों देश द्विपक्षीय वार्ताओं के लिए भी तैयार होते हैं तो यह एशिया की दो महाशक्तियों के बीच सहमतिपूर्ण संबंधों के लिहाज से भी एक आश्वस्तकारी कदम हो सकता है। प्रधानमंत्री मोदी और शी जिनपिंग की पिछली बार अगस्त, 2023 में दक्षिण अफ्रीका में ब्रिक्स की बैठक में बातचीत हुई थी और तब दोनों देशों ने पारस्परिक संबंधों को बेहतर बनाने की इच्छा भी जताई थी।
अब सवाल केवल यह है कि क्या भारत को चीन पर भरोसा करना चाहिए? पिछले अनुभवों को अगर ध्यान में रखा जाए तो इसका सीधा सा उत्तर यही होगा- बिल्कुल भी नहीं। पहले भी चीन ‘हिंदी- चीनी, भाई-भाई’ कह कर भारत के साथ विश्वासघात कर चुका है। अरुणाचल, लद्दाख और कश्मीर को लेकर जिस तरह से चीन बयानबाजी करता रहता है और सीमा विवाद के स्थायी हल के लिए कभी ठोस पहल करता नजर नहीं आता है; तो ऐसी स्थिति को देखते हुए भारत को सदैव उसके साथ सतर्कता बनाए रखने में ही भलाई है। सुरक्षा परिषद में भी भारत की स्थायी सदस्यता में सबसे बड़ा रोड़ा चीन ही है। यही नहीं; भारत के पड़ोसी देशों में घुस कर चीन जिस तरह से सीमाओं पर भारत को घेरने की कोशिश करता रहता है, वह भी कोई नजरअंदाज करन वाली बात नहीं है। अत: भारत का चीन से सतर्क और सावधान रहना ही श्रेयस्कर है।