दीपक द्विवेदी
महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव परिणामों ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि एंटी इन्कंबेंसी यानी कि सत्ता विरोधी लहर हर बार काम नहीं करती और मतदाता कुछ अलग सोच के साथ भी वेटिंग कर सकता है। लोकसभा चुनाव में भी यही हुआ था। इंडिया गठबंधन यह मान कर चल रहा था कि मौजूदा सरकार से लोग खफा हैं और राजग सत्ता में नहीं लौटेगा पर हुआ इसका एकदम उल्टा। एग्जिट पोल भी धराशायी हो गए थे। मध्यप्रदेश और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में भी यही देखने को मिला था और अभी हाल ही में आए महाराष्ट्र एवं झारखंड चुनाव परिणामों ने भी इसी सच्चाई पर मुहर लगा दी कि जो पार्टी सत्ता में जहां है, वह वहीं बनी रहे। दोनों राज्यों की जनता ने इसी संदेश के साथ यथास्थिति कायम रहने का एक जैसा जनादेश दिया। इसी कारण जहां महाराष्ट्र में भाजपा, शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी (अजीत पवार) वाले गठबंधन यानी महायुति ने और अधिक राजनीतिक ताकत हासिल की, वहीं झरखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और अन्य सहयोगी दलों ने अपने को पहले से अधिक मजबूत किया। दोनों राज्यों में विपक्ष को केवल निराशा ही हाथ लगी।
महाराष्ट्र में तो विपक्ष को कुछ अधिक ही जोर का झटका लगा। यहां पर तो कोई भी विपक्षी दल इतनी भी सीटें हासिल न कर सका कि वह महाराष्ट्र विधान सभा में मान्य विपक्ष का दर्जा भी हासिल कर पाए। महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव को लेकर जो जोश और रहस्य बना हुआ था, परिणामों ने उस पर पूरी तरह से पानी फेर दिया। जब रिजल्ट आए तो पता चला कि वहां महायुति अलायंस के पक्ष में एकतरफा माहौल था। नतीजों से पहले चुनाव विशेषज्ञों ने दावा किया था कि महाराष्ट्र में जबरदस्त मुकाबला देखने को मिलेगा। यह भी कहा जा रहा था कि निर्दलीय और बागी प्रत्याशियों के साथ जिलास्तर के राजनीतिक क्षत्रप ही यह तय करेंगे कि महायुति और महाविकास अघाड़ी में से किसकी सरकार बने पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने महाराष्ट्र में अभूतपूर्व सफलता के झंडे इस चुनाव में गाड़ दिए। बीजेपी ने अब तक का सबसे बेहतर प्रदर्शन किया है। इससे पहले 2014 में उसने सबसे अधिक 122 सीटें जीती थीं। दूसरी ओर, कांग्रेस के लिए यह महाराष्ट्र में अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन रहा। राज्य में बीजेपी, एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजित पवार की एनसीपी के महायुति गठबंधन ने कांग्रेस, शरद पवार की एनसीपी और उद्धव ठाकरे की शिवसेना के एमवीए अलायंस को जबरदस्त शिकस्त दी। 288 सीटों वाली विधानसभा में महायुति तीन चौथाई बहुमत से भी आगे निकलने में सफल रहा और उसका वोट शेयर भी एमवीए से दहाई अंकों में अधिक है।
महाराष्ट्र का ताजा नतीजा यह भी रेखांकित कर रहा है कि संविधान और आरक्षण खतरे में है, जैसे फर्जी नैरेटिव के सहारे जनता को हर बार बरगलाया नहीं जा सकता। दोनों राज्यों का जनादेश यह साझा संदेश भी दे रहा।
महाराष्ट्र में महाविकास अधाड़ी में शामिल कांग्रेस, एनसीपी (शरद पवार) और शिवसेना (उद्धव ठाकरे) मिलकर सौ सीटें भी हासिल नहीं कर सकीं। ऐसे दयनीय प्रदर्शन के बाद शरद पवार और उद्धव ठाकरे के लिए अपने दलों को प्रासंगिक बनाए रखना तो कठिन हो ही गया है, कांग्रेस को भी आईएनडीआईए का केंद्र बने रहने में मुश्किलों का सामना भी करना पड़ सकता है। कांग्रेस को इससे ही संतोष करना पड़ेगा कि उसे झारखंड में सहयोगी दलों के साथ सत्ता का स्वाद चखने का अवसर मिलता रहेगा लेकिन महाराष्ट्र के निराशानजक नतीजों के कारण वह खुशियां भी नहीं मना सकती। ऐसा इसलिए भी, क्योंकि झारखंड में जीत का श्रेय मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के हिस्से में गया है। महाराष्ट्र और झारखंड के नतीजे यह भी बता रहे हैं कि कांग्रेस अपने सहयोगी दलों में यह भरोसा जगाने की स्थिति में नहीं है कि वह उनका नेतृत्व संभालकर या फिर बराबर की सहयोगी बनकर भाजपा का मुकाबला कर सकती है। यद्यपि महाराष्ट्र और झारखंड के नतीजे एक जैसा संदेश देने वाले अवश्य रहे पर यह अंतर भी स्पष्ट है कि जो मुद्दे एक राज्य में असरदार होते हैं, वो इस बात की गारंटी भी नहीं कि दूसरे राज्य में भी हिट हो जाएंगे। नारों की बात करें तो यह तो स्पष्ट है कि महाराष्ट्र में ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ या फिर ‘एक हैं तो सेफ हैं’ के नारे ने अपना असर छोड़ा लेकिन झारखंड में भाजपा की ओर से उठाया गया घुसपैठ का मुद्दा पार्टी को सत्ता की सीढ़ियां चढ़ाने में सफल नहीं सका। यह इसलिए कारगर नहीं हुआ क्योंकि भाजपा के पास इसका उत्तर नहीं था कि अगर घुसपैठ हो भी रही है तो केंद्र सरकार उसे रोक क्यों नहीं पा रही है? इस पर हैरानी नहीं कि महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी की ओर से अल्पसंख्यक यानी मुसलमान खतरे में हैं, का जो भय खड़ा किया गया था, वह भी औंधे मुंह गिरा। इससे यह तो सिद्ध होता ही है कि जनता के मन-मस्तिष्क को प्रभावित करने वाले मुद्दे ही लाभकारी साबित होते हैं। महाराष्ट्र का ताजा नतीजा यह भी रेखांकित कर रहा है कि संविधान और आरक्षण खतरे में है जैसे फर्जी नैरेटिव के सहारे जनता को हर बार बरगलाया नहीं जा सकता। दोनों राज्यों का जनादेश यह साझा संदेश भी दे रहा है कि महिलाओं को प्रतिमाह पैसा देने वाली योजनाएं चुनावों में सफलता का एक बड़ा सफल सूत्र बनती जा रही हैं और चुनावी सफलता के लिए अब कोई भी दल उनसे मुंह नहीं मोड़ सकता।